व्यंग्य : बसंत नहीं रहा अब वह बसंत
--- सुनील कुमार ‘सजल’
(मीडिया केयर नेटवर्क)
हम कैलेंडर में बसंत ऋतु के आगमन की तिथि को देखकर बसंत ऋतु पर आधारित कथायें, व्यंग्य, लेख लिखने के लिए कागज-कलम संभालकर मन बना रहे थे कि पत्नी हमारी कार्यशैली पर गुर्राती हुई बोली, ‘‘तुम कुछ भी लिखो, मुझे मंजूर है पर तुम्हारा ‘बसंत’ लेखन मुझे मंजूर नहीं।’’
‘‘क्यों? बसंत से तुम्हारी क्या दुश्मनी हो गई है?’’ हमने जानना चाहा।
‘‘हां है, बिल्कुल है।’’ पत्नी ने अपने शब्दों में जोर लाते हुए कहा।
‘‘आखिर क्यों है?’’ हमने पुनः प्रश्न किया।
‘‘बसंत ऋतु आते ही तुम कुछ ज्यादा ही रोमांटिक हो जाते हो।’’ पत्नी ने अपना मंतव्य स्पष्ट किया।
‘‘क्या? तो क्या रोमांटिक होना बुरी बात है?’’ हमने पूछा।
‘‘रोमांटिक होना दाम्पत्य जीवन में बुरी बात नहीं है पर तुम्हारा रोमांटिक होना जरूर बुरी बात है।’’ उसने अपने तर्क का पत्ता फैंका।
‘‘हमारे रोमांटिक होने से तुम्हें इतनी नफरत क्यों है?’’ हमने पूछा।
‘‘क्योंकि तुम सीजनल रोमांटिक हो, बाकी समय में तुम्हारा व्यवहार किसी खलनायक से कम नहीं होता।’’ उसने उत्तर दिया।
‘‘मैं और खलनायक ...!’’
‘‘और नहीं तो क्या? केवल बसंत ऋतु में ही तुम्हारे दिमाग में प्रेम-क्रीड़ाएं जागती हैं, बाकी समय तुम्हारे व्यवहार में काले नाग की फुफकार होती है। जैसा लिखते हो न, वैसे ही तुम्हारे मुख से निकलने वाले शब्द भी होते हैं, जैसे कोई पिन चुभो रहा हो। ऐसा बसंत काल, ऐसा प्रेम किस काम का, जो साल के चंद दिन खुश रखे, बाकी समय तरसाये, रूलाये।’’ पत्नी ने मन की बात कही।
‘‘ओह! तो तुम इसलिए मेरे बासंती लेखन से नफरत कर रही हो।’’ हमने कहा।
‘‘सच कहूं, तुम्हारे खाने के दांत और दिखाने के दांत अलग-अलग हैं।’’ उसने जैसे हम पर व्यंग्य कसा।
‘‘मतलब?’’
‘‘मतलब यही कि लोग तुम्हारे लेखन को पढ़कर तुम्हें कुछ और समझते होंगे यानी तुम्हारी प्रेम कविताएं पढ़कर तुम्हें प्रेम के दीवाने समझते होंगे पर असलियत तो हम जानते हैं। जब से शादी हुई है, कभी वैलेन्टाइन डे पर प्रेम से मुस्कराकर बात की? होली पर प्रेम की पिचकारी हम पर छोड़ी? या पूरे फागुन भर बासंती पुरवाई की तरह अपनी जुबान से हमें अपनी ओर आकर्षित किया? जब देखो तब जली-कटी बातें की।’’ पत्नी ने जैसे हमारा चिट्ठा खोला।
‘‘नाराज न होओ! अब हम ऐसा नहीं करेंगे। अब तुम्हारे लिए बसंत की तरह मधुर बने रहेंगे।’’ हमने उसके मन को सुख पहुंचाने का प्रयास किया।
‘‘तुम्हारे वायदे तो हड़तालियों को आश्वासन देकर उल्लू बनाने वाले नेताओं की तरह हैं, जो इधर बोले और उधर भूले।’’ पत्नी ने कहा।
‘‘चलो इस बसंत में तुम्हें ही बसंत मानकर कविताएं लिख देते हैं, अब तो खुश हो न!’’ हमने उसे मनाने का प्रयास किया।
‘‘तुम और हम पर कविता लिखोगे? हूं ...!’’
‘‘अरे भई, तुम भी हमारे लिए बसंत ऋतु से कम हो क्या?’’
हम उसे मनाने का प्रयास करते रहे पर वह हम पर विश्वास न करने की जिद पर अड़ी रही। अतः हमने संकल्प लिया कि अब की बार उस पर ही कविताएं लिखकर रहेंगे। चूंकि हम कवि नहीं हैं, इसलिए कविता का शुरूआती माहौल ढूंढ़ने में हमें बड़ी दिक्कत आ रही थी। तभी हमें अपने मित्र का ध्यान आया, जो श्रृंगार रस के कवि हैं। हमने उनसे कुछ पूछताछ कर लिखने का मन बनाया। हम उनके यानी बसंत बिहारी जी के पास पहुंचे और उनसे कहा, ‘‘यार बसंत पर कुछ ऐसा क्लाईमैक्स बताओ कि हम उस पर कविता लिखकर पत्नी को खुश कर दें।’’
‘‘काहे? भाभी जी को खुश करने की कौनसी जरूरत आन पड़ी?’’ उन्होंने मुस्कराते हुए कहा।
‘‘वह हमेशा शिकायत करती रहती है कि रात-दिन हम उसको आधार बनाकर व्यंग्य ही घिसते रहते हैं, प्रेमिल कविताएं कभी नहीं लिखी। इस कारण वह नाराज है।’’ हमने अपना सच उनसे कहा।
वे हंसे, ‘‘तुम और प्यार की बातें! तुमने तो व्यंग्य पर ताने-बाने घिसटते-घसीटते दिमाग को भी व्यंग्य का कब्रिस्तान बना लिया है। जनाब! दिल में प्रेम पैदा करने के लिए दूसरों की लंगोटी में छेद ढूंढ़ना छोड़ो ... कुछ समझे।’’
‘‘इसीलिए तो इस बार अपने में बदलाव लाने के लिए प्रेम कविताएं लिखने का प्रयास कर रहे हैं।’’
‘‘प्रयास करते रहो, तभी सफल हो पाओगे।’’ इतना कहकर वे स्वयं गंभीर हो गए। हम उनके चेहरे पर गंभीरता के उभरते-बिगड़ते भाव को देखकर बोले, ‘‘क्या बात है, आप हममें गंभीरता लाने की बात करते-करते खुद गंभीर हो गए। कहीं ऐसा तो नहीं कि प्रेम कविताएं लिखने के कारण आप भी शक के घेरे में आ गए।’’
‘‘नहीं दोस्त, ऐसा नहीं है।’’ वे गंभीरतापूर्वक बोले।
‘‘फिर क्या बात है?’’ हमने उन्हें कुरेदने का प्रयास किया।
‘‘बात यह है कि अब का बसंत ‘बसंत’ नहीं रहा। आप ही देखो, फगुनवा बयार पहले जैसी नहीं चल रही, पेड़ों से पत्ते तो झड़ गए मगर कोंपलें अभी तक नहीं आई, तितलियां पहले जैसी संख्या में नहीं दिख रही, आंगन में पंछी नहीं चहचहा रहे हैं, ठंड का प्रकोप घट नहीं रहा, धूल में सौंधी गंध नहीं रही ...!’’ वे अपना कवि मन का दुख उगलते रहे और हमने उनका ध्यान बंटाने का प्रयास किया, ‘‘क्या, इन दिनों आपके मन में कविता नहीं फूट रही है?’’
‘‘हां, तुम सच कहते हो, वातावरण खुशनुमा हो तो कवि मन कुछ लिखने को प्रेरित होता है लेकिन अब वह वातावरण नहीं रहा है। जंगल कट गए, तरह-तरह के वैश्विक बदलाव सामने आने लगे, मौसम के मिजाज की ऐसी-तैसी हो गई। मुझे ऐसा लग रहा है कि हमारे अंदर की कविता विक्षिप्त होकर सुसाइड न कर ले।’’ वे ऐसा कहते-कहते पुनः गंभीर हो गए।
हमने उन्हें समझाया, ‘‘भाई काहे चिंतत होते हो, अब कुछ ऐसा लिखो, जिससे लोग जागरूक होकर पुनः खोये वातावरण को प्राप्त करने की दिशा में जुट जाएं। जो होना था, हो गया।’’
वे सामान्य हुए तो हमने पुनः उनसे कहा, ‘‘अच्छा बताओ, हम बसंत को किस तरह लिखें?’’
वे कुछ मुस्कराने का प्रयास करते हुए बोले, ‘‘बसंत को ‘बसंत’ जैसा बनकर लौटने दो, फिर बताऊंगा। अभी तो बचे-खुचे बसंत को बचाने के लिए लिखो। वह तो लिख ही सकते हो न!’’
‘‘देखो, प्रयास करेंगे ... मगर वह प्रेम?’’ हमने कहा तो वे हंसते हुए बोले, ‘‘अभी भी ‘प्रेम’ के ही पीछे पड़े हो ... अभी प्रेम को मारो गोली, बसंत बचाने पर लिखो, लिखोगे न ...!’’
हमने सहमति दी तो वे मुस्करा दिए। (एम सी एन)
Comments
... बहुत सही बात कहीआपने ...अब तो सबको बसंत बचाने की जरुरत आन पड़ी है.. अब वह बसंत कहाँ!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति .बसंत पंचमी की शुभकामना d