ग्लोबल वार्मिंग के भयावह खतरे



विश्व पर्यावरण दिवस 5 जून पर विशेष


-- योगेश कुमार गोयल --

वर्तमान समय में पृथ्वी और हमारा जनजीवन एक कठिन दौर से गुजर रहे हैं। वर्षा की मात्रा में कहीं अत्यधिक कमी तो कहीं जरूरत से बहुत अधिक वर्षा, कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा, समुद्र का बढ़ता जलस्तर, मौसम के मिजाज में लगातार परिवर्तन, पृथ्वी का तापमान बढ़ते जाना, इस प्रकार के भयावह लक्षण पिछले कुछ वर्षों से लगातार नजर आ रहे हैं। पृथ्वी के वायुमंडल के तापमान में हो रही वृद्धि के कारण हिमनदों की बर्फ पिघलकर समुद्रों का जलस्तर बढ़ रहा है, जिस कारण आने वाले वर्षों में पहले से ही विकराल पेयजल की समस्या और भी विकट रूप धारण किए हमारे सामने मुंह बाये खड़ी होगी, यह तय है।

पृथ्वी का निरन्तर बढ़ता तापमान और जलवायु में परिवर्तन समूचे विश्व में आज मानव जीवन के लिए एक गंभीर खतरा बनता जा रहा है। मौसम का बिगड़ता मिजाज मानव जाति, जीव-जंतुओं तथा पेड़-पौधों के लिए तो बहुत खतरनाक है ही, साथ ही पर्यावरण संतुलन के लिए भी गंभीर खतरा है। मौसम एवं पर्यावरण विशेषज्ञ विकराल रूप धारण करती इस समस्या के लिए औद्योगिकीकरण, बढ़ती आबादी, घटते वनक्षेत्र, वाहनों के बढ़ते कारवां तथा तेजी से बदलती जीवनशैली को खासतौर से जिम्मेदार मानते हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि पिछले 10 हजार वर्षों में भी पृथ्वी पर जलवायु में इतना बदलाव और तापमान में इतनी बढ़ोतरी नहीं देखी गई, जितनी पिछले कुछ ही वर्षों में देखी गई है।

 
दरअसल पृथ्वी के वायुमंडल के तापमान में लगातार हो रही वृद्धि और मौसम के मिजाज में निरन्तर परिवर्तन का प्रमुख कारण है वायुमंडल में बढ़ती ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा। सवाल यह है कि वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा क्यों और कैसे बढ़ रही है? औद्योगिक क्रांति तथा वाहन इत्यादि तो इसके लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार हैं ही, इसके साथ-साथ वनों का बड़े पैमाने पर दोहन किया जाना भी इस समस्या को विकराल रूप प्रदान करने में अहम भूमिका निभाता रहा है। यह जानना जरूरी है कि पेड़-पौधों द्वारा अपना भोजन तैयार करते समय संश्लेषण की प्रक्रिया में सूर्य की किरणों के साथ-साथ कार्बन डाइऑक्साइड गैस का भी काफी मात्रा में प्रयोग किया जाता है और अगर वनों का इस कदर अंधाधुंध सफाया न हो रहा होता तो कार्बन डाइऑक्साइड गैस की काफी मात्रा तो वनों द्वारा ही सोख ली जाती और तब पृथ्वी के तापमान को बढ़ाने में ग्रीन हाउस परत इतनी सशक्त भूमिका न निभा रही होती।

समुद्र भी प्रतिवर्ष वायुमंडल से करीब दो अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड गैस अपने अंदर ग्रहण कर लेते हैं, जिसके फलस्वरूप ग्रीन हाउस गैसों का प्रभाव कम हो जाता है लेकिन वैज्ञानिकों का कहना है कि पृथ्वी के बढ़ते तापमान के चलते कार्बन डाइऑक्साइड को ग्रहण करने की समुद्र की क्षमता में भी अब 50 फीसदी तक कमी आने की संभावना है। निसंदेह ऐसी स्थिति में यदि ग्रीन हाउस गैसों का विसर्जन वायुमंडल में इसी रतार से जारी रहा तो ग्रीन हाउस लेयर दिनोंदिन और मोटी होती जाएगी, जिसके परिणामस्वरूप पृथ्वी पर वायुमंडल के तापमान में बढ़ोतरी होती रहेगी। तब प्रकृति की जो विनाशलीला शुरू होगी, उससे पृथ्वी पर मौजूद हर प्राणी, हर जीव का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।

ग्लोबल वार्मिंग के भयावह खतरे को इसी से समझा जा सकता है कि उत्तरी ध्रुव पर जहां पिछले पांच करोड़ वर्षों से हर समय हर तरफ बर्फ ही बर्फ दिखाई देती थी, वहां भी अब एक मील से अधिक लंबी-चौड़ी पानी की झील नजर आने लगी है। कुछ विशेषज्ञों का तो यह भी मानना है कि अगर पृथ्वी का तापमान इसी रतार से बढ़ता रहा तो इस सदी के अंत तक उत्तरी ध्रुव की बर्फ पूरी तरह से पिघल जाएगी और उस स्थिति में दुनियाभर के अनेक तटीय शहर जलमग्न हो जाएंगे।

विश्व भर में ग्लोबल वार्मिंग के कारण पृथ्वी के बढ़ते तापमान की वजह से ग्लेशियरों के पिघलने का सिलसिला बदस्तूर जारी है। ऐसे ही अनेक ग्लेशियरों में से एक ‘अलास्का’ ग्लेशियर भी तेजी से पिघल रहा है। इस ग्लेशियर के कुछ हिस्से तो पिछले कुछ वर्षों में पूरी तरह पिघल चुके हैं। इसी ग्लेशियर से जुड़ा करीब 54 किलोमीटर लंबा और 5 किलोमीटर चौड़ा ‘कोलम्बिया’ ग्लेशियर तो पिछले 20 वर्षों में पिघलकर 12 किलोमीटर से भी अधिक पीछे चला गया है और कई स्थानों पर इसकी मोटाई अब बहुत कम रह गई है। विशेषज्ञों के अनुसार यह ग्लेशियर अब प्रतिदिन करीब 35 मीटर सरक रहा है और इसके हिमशैल छोटे-छोटे टुकड़ों में टूट-टूटकर गिर रहे हैं। इस प्रकार यह ग्लेशियर अपना आकार खोता जा रहा है। निसंदेह यह बड़े आश्चर्य एवं चिन्ता की बात है कि यह ग्लेशियर पिछले कुछ ही वर्षों में ग्लोबल वार्मिंग की ही वजह से करीब 25 किलोमीटर क्षेत्रफल से पिघल चुका है। यही नहीं, ऐसे ही न जाने कितने ही ग्लेशियर इसी प्रकार तेजी से पिघलते जा रहे हैं। भू-विज्ञान एवं समुद्र विज्ञान के अनुसार हालांकि ग्लेशियरों की हिमशिलाओं का आगे-पीछे सरकना कोई खास मायने नहीं रखता बल्कि यह एक सामान्य प्रक्रिया मानी जाती है लेकिन ग्लेशियरों का इस प्रकार तेजी से पिघलते जाना वाकई गहन चिन्ता का विषय है।

युवा पीढ़ी होने के नाते स्कूल व कॉलेज के बच्चों की पर्यावरण की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका है, इसलिए हमें छात्रों के साथ-साथ शिक्षकों का भी पर्यावरण के सरंक्षण का संकल्प लेने का आव्हान करना होगा। छात्रों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ाने और उन्हें पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रेरित करने के लिए आजकल कुछ स्थानों पर समय-समय पर पर्यावरण संरक्षण से जुड़ी कुछ संस्थाओं द्वारा ‘इको बाल मेलों’ का आयोजन किया जा रहा है। छात्रों को विभिन्न पर्यावरणीय विषयों पर केन्द्रित शैक्षणिक मॉडल बनाने और प्रस्तुत करने के लिए प्रेरित करने के साथ-साथ उन्हें पर्यावरण पर मंडराते खतरों को दर्शाते हुए पर्यावरण की रक्षा का संदेश दिया जाना भी अत्यावश्यक है। इसके अलावा स्कूल व कॉलेजों में पर्यावरण पर आधारित भाषण, निबंध, पोस्टर, श्लोगन प्रतियोगिता जैसी विभिन्न प्रतियोगिताएं भी आयोजित की जानी चाहिएं।

हमें बच्चों को बचपन से ही यह बताते रहना चाहिए कि हमारे लोकजीवन एवं परम्पराओं में प्रकृति की रक्षा का संकल्प निहित है तथा भारतीय संस्कृति प्राचीन काल से ही पर्यावरण हितैषी रही है। विकास की रतार को बरकरार रखते हुए पर्यावरण को बचाए रखना आज हमारे लिए एक बड़ी चुनौती है लेकिन थोड़ी सी सावधानियों के साथ हम इन चुनौतियों से निपट सकते हैं। इसके लिए जरूरत है कि हम अपनी आदतों में कुछ बदलाव लाएं और ऐसे कृत्यों से तौबा करें, जिनसे पर्यावरण को नुकसान पहुंचता हो, साथ ही खासकर युवा वर्ग के मन में वृक्षारोपण को लेकर एक नई ललक पैदा करें।

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