फॉर्मूलों को तोड़ती हिन्दी फिल्में


प्रस्तुति: मीडिया केयर नेटवर्क ब्यूरो

हिन्दी फिल्में अभी तक अमूमन ‘रामायण’ को ही ध्यान में रखकर बनती थी। इस धार्मिक ग्रंथ के प्रति हमारे यहां के लोगों में खास श्रद्धा है। जनमानस की इसी श्रद्धा को भुनाने की गरज से हिन्दी फिल्मों के लेखकों ने प्रायः ऐसी कहानियां लिखी, जिनमें हीरो को आधुनिक राम और विलेन को रावण के रूप में चित्रित किया गया। कहानी में रोमांस डालने की चाहत में उन्होंने हीरोइन को सीता जैसी पत्नी बनाने के पहले आदर्श प्रेमिका के रूप में प्रस्तुत किया, जो अपने भावी जीवनसाथी के हर सुख-दुख की भागीदार बनी।

समय बदला और फिर ऐसी भी कहानियां लिखी गई, जिनमें एक ही हीरोइन के पीछे दो हीरो मजनूं बने नजर आए या फिर एक नायक को पाने के लिए दो-दो नायिकाएं लैला बनी दिखी लेकिन इन सभी फिल्मों में एक बात जो कॉमन थी, वो थी फिल्म का सुखांत होना। तीन घंटे की फिल्म में हीरो-हीरोइन को भले ही तमाम मुसीबतों का सामना करना पड़ा हो मगर दि एंड के पांच मिनट पहले ही संकेत मिल जाता था कि अब इनके मिलन को कोई नहीं रोक पाएगा।

हमारा फिल्मोद्योग यूं ‘महाभारत’ से भी ज्यादा प्रभावित नहीं रहा मगर एक जैसे क्लाइमैक्स से ऊबे दर्शकों की नब्ज टटोलने की कोशिश हुई तो लेखकों व पिल्मकारों की नजर हॉलीवुड की फिल्मों पर पड़ी। फिर क्या था, जाने-माने तमाम लेखकों और फिल्मकारों ने ‘प्रेरणा’ कहकर उन फिल्मों की रीमेक बनानी शुरू कर दी।

भारत की आबादी का बड़ा हिस्सा आज भी गांवों में बसता है, ऐसे गांवों में भी, जहां टी.वी. और बिजली की बात आज भी अनोखी लगती है। ऐसे लोग भला हॉलीवुड के बारे में क्या जानें! इसीलिए इन फिल्मों ने ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले दर्शकों को तो रोमांचित किया मगर इन्हें पहले ही थिएटर या डीवीडी अथवा वीसीडी घर मंगाकर देख चुके शहरी दर्शकों ने नकार दिया। अब एक बार फिर परिवर्तन की मांग महसूस की जाने लगी। धार्मिक हो या काल्पनिक, ऐतिहासिक अथवा पौराणिक, वही नायक, नायिका और विलेन की कहानी देख-देखकर दर्शक तंग आ गए थे। बेशक भारतीय दर्शकों की रूचि को ध्यान में रखते हुए हिन्दी फिल्मों में एक से बढ़कर एक श्रवणीय गीत रखे जाते थे। रोमांटिक, सैड, भक्ति, देशभक्ति आदि से सराबोर गीत लेकिन एक समय वह भी आया, जब ये गीत भी दर्शकों को फिल्मों की ओर लुभाने में असफल होने लगे।

आवश्यकता आविष्कार की जननी है। अपनी फिल्म को चलाने के लिए उस फार्मूले का आविष्कार जरूरी हो गया, जो दर्शकों की नई चाहत को पूरा कर सके। ऐसे में हिन्दी फिल्मों के वर्चस्व को बचाने का जिम्मा एक बार फिर उन्हीं लेखकों के सिर पर आ पड़ा, जो फिल्मी दुनिया में आज भी सबसे ज्यादा उपेक्षित हैं। इस चुनौती को भी लेखकों ने स्वीकार किया और दौर चला फार्मूला तोड़ने वाली फिल्मों का।

बरसों बरस पुरानी हमारी भारतीय संस्कृति में ऐसी कहानियां घटित नहीं हुई होंगी, यह कहना तो मुश्किल है लेकिन ‘राज’ की सफलता ने इंडस्ट्री को एक नया फार्मूला दिया। इस फिल्म में भगवान के साथ शैतान के भी होने की बात कही गई थी। चूंकि फिल्म ने अच्छा व्यवसाय किया, इसलिए माना गया कि ‘राज’ की सफलता की वजह फिल्म के मधुर गाने थे लेकिन रामगोपाल वर्मा ने अपनी फिल्म ‘भूत’ को हिट करके इस धारणा को गलत साबित कर दिया कि फिल्म सिर्फ गाने के ही दम पर सफल हो सकती है। ‘भूत’ में एक भी गाना नहीं था, हां एक पढ़े लिखे युवक का भूत के अस्तित्व को नकारना और उसी की पत्नी की भूत में मान्यता जैसे नए फार्मूले ने ‘भूत’ को हिट कराने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यह बात और है कि रामू का नया फार्मूला ‘डरना मना है’ में काम नहीं आया। इसके बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी और ‘एक हसीना थी’ के बाद ‘अब तक छप्पन’ जैसी फार्मूला तोड़ती फिल्में ला चुके हैं। इसी श्रेणी में पूजा भट्ट की ‘पाप’ भी थी, जिसमें भट्ट कैंप की पहचान बन चुके सैक्स की चाशनी भरपूर थी।

गौरतलब है कि अंडरवर्ल्ड पर पहले भी कई फिल्में आई हैं मगर ‘वैसा भी होता है पार्ट-2’ में कहानी के साथ किए गए प्रयोग को लीक से हटकर माना गया। यह सच है कि राजकुमार संतोषी कभी लकीर के फकीर नहीं बने। उन्होंने अपनी हर फिल्म में पारम्परिक फार्मूले को तोड़ने की कोशिश की, बेशक इस प्रयास में ‘लज्जा’ और ‘चाइना गेट’ फ्लॉप हो गई। ‘चाइना गेट’ में दस बुजुर्ग जहां एक विलेन के खिलाफ एकजुट होकर लड़ते हैं, वहीं ‘लज्जा’ में नारी जाति पर किए जाने वाले उत्पीड़न का बड़ा मार्मिक चित्रण था। संतोषी ने फार्मूला तब भी तोड़ा था लेकिन यही प्रयोग जब उन्होंने ‘चाइना गेट’ में किया, तब उर्मिला मातोंडकर के ‘छम्मा छम्मा’ से ज्यादा दर्शकों को कुछ अच्छा नहीं लगा था।

असल में भारतीय दर्शकों को नया देखने की चाहत तो जरूर रहती है पर नई कहानी में भी वे पैतृक पसंद को नजरअंदाज नहीं कर पाते। ‘मि. एंड मिसेज अय्यर’, ‘पैसा वसूल’, ‘झंकार बीट्स’, ‘जॉगर्स पार्क’, ‘धूप’, ‘मुम्बई मैटिनी’ आदि की असफलता से यह बात माननी ही पड़ती है। जातीय दंगों में फंसे एक पुरूष को एक परायी महिला द्वारा बचाने की कहानी को दर्शाती ‘मि. एंड मिसेज अय्यर’ हो या ‘धूप’ में ससुर द्वारा अपनी विधवा बहू की वेदना को समझने का प्रयास, दर्शकों को पसंद नहीं आया।

‘मुम्बई मैटिनी’ में एक बिंदास लड़की जब किसी युवक के संग शारीरिक सम्पर्क बनाकर साबित करना चाहती है कि वह नामर्द नहीं है, तब भी शहरों की इस आम बात को दर्शक पचा नहीं पाए। यहां तक कि इसी युवक राहुल बोस की ‘चमेली’ भी पिट गई जबकि इसके प्रोमो से ही करीना कपूर ने लोगों की नींदें उड़ा दी थी। ऐसे में ‘कोई मिल गया’ की जबरदस्त सफलता के बारे में आश्चर्य करना स्वाभाविक था, जिसमें राकेश रोशन ने एक अविश्वसनीय कहानी को भारतीयता का जामा पहनाया था। इसमें उन्होंने मधुर गानों का सहारा तो लिया ही, मां-बेटे के सीन में इमोशन उड़ेलकर दर्शकों की कमजोर नस को भी छुआ।

जाहिर है कि फार्मूला तोड़ती फिल्मों की लाइन अभी लंबी है मगर समय रहते समझना जरूरी है कि पूर्व में प्रदर्शित ऐसी तमाम फिल्में बॉक्स ऑफिस पर दम भी तोड़ चुकी हैं। उल्लेखनीय है कि बरसों से एक ही प्रकार के भोजन का शौकीन कोई भी भारतीय यदि एक जगह से दूसरी जगह जाता है तो वहां का स्थानीय भोजन वह हजम नहीं कर पाता। यही बात हिन्दी फिल्मों पर भी लागू होती है। चटनी की तरह कम मात्रा में बदला फार्मूला तो स्वीकार्य हो सकता है किन्तु नए फार्मूले के नाम पर भोजन रूपी पूरी फिल्म को ही भारतीय संस्कृति से दूर दर्शाना बुद्धिमानी नहीं है। आखिर हिन्दी फिल्मों के दर्शक अपनी जमीन तो नहीं छोड़ सकते न! (एम सी एन)

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