क्यों पड़ी देश को अन्ना की जरूरत?


मनमोहन जी, ये अनशन है, कोई प्रायोजित कार्यक्रम नहीं

- डा. भरत मिश्र प्राची (मीडिया केयर नेटवर्क)

देश से भ्रष्टाचार को जड़ से मिटाने के लिए जन लोकपाल विधेयक को लेकर अनशन के मार्ग पर उतरे अन्ना हजारे के साथ सरकार क्या-क्या खेल खेल रही है, सभी के सामने है। कभी पुलिस से पकड़वाकर जेल भेज देती है तो विरोध में उमड़ते जनसैलाब को देख जेल से रिहा करने का फरमान जारी करवा देती है। अन्ना हजारे के सामने कभी अनशन के लिए शर्तों का पुलिंदा रख देती है तो कभी बिना शर्त सब कुछ सहज ढ़ंग से मानने को तैयार हो जाती है।

यह सब भली-भांति जानते हैं कि अभी तक जो भी कुछ हुआ है, सरकार के इशारे पर ही हुआ है, फिर भी सारी कार्रवाई पुलिस के मत्थे मढ़ने की पुरजोर कोशिशें मनमोहन की नाकारा और भ्रष्ट सरकार की तरफ से हुई हैं। अनशन के लिए कभी तीन दिन का समय दिए जाने की घोषणा की गई तो कभी सात दिन और बाद में जनता के पुरजोर विरोध को देखते हुए रामलीला मैदान में पन्द्रह दिन का समय दे दिया गया। बात समझ में नहीं आ रही है कि आखिर सरकार चाहती क्या है? मुद््दे पर आधारित अनशन की क्या कोई मियाद होती है? जिस मुद््दे को लेकर अनशन किया जा रहा है, वह एक घंटे में सुलट जाए या महीनांें भी लग जाएं। यह अनशन है, कोई प्रायोजित कार्यक्रम तो नहीं, जिसके समाप्त होने की कोई समय सीमा निर्धारित हो। अनशन या आन्दोलन समस्या को लेकर उत्पन्न होता है। किसी से पूछकर या इजाजत लेकर इसके हालात कभी नहीं बनतेे। सरकार या प्रशासन कभी भी अपने विरोध में आवाज उठाने की इजाजत नहीं दे सकते, इस यथार्थ को समझना होगा।

आज देश में बढ़ते भ्रष्टाचार, बढ़ती महंगाई को लेकर प्रायः सभी दुखी हैं, तभी तो भ्रष्टाचार के विरोध में छिड़ी जंग में अन्ना हजारे के साथ सभी हो चले हैं। क्या युवा, क्या बूढ़ा, सभी के सभी आजादी की लड़ाई की तरह अन्ना के साथ खड़े हैैं। साथ ही यह संदेश भी दे रहे हैं कि अन्ना एक नहीं, आज हजारों की तैदाद में हैं। अन्ना की आवाज पूरे देश की आवाज है। क्या ये स्वर सरकार में बैठे लोगों को सुनाई नहीं देते?

आज संसद में सरकार के नुमाइंदे जनप्रतिनिधियों की दुहाई दे रहे हैं, अन्ना को अकेले समझ रहे हैं। लोकतंत्र में चुने गए जनप्रतिनिधियो ंके अधिकार की चर्चा कर रहे हैं। जो मद में सब कुछ भूल गए हैं कि जनप्रतिनिधि के क्या अधिकार होते हैं? आज वे जन सेवा की भावना छोड़ सुविधाभोगी हो चले हैं, वेतनभोगी हो चले हैं। वे भूल गए हैं कि जनप्रतिनिधि का दर्जा देश में सर्वोपरि होता है, जिनके कार्यों की कोई कीमत नहीं होती पर आज वे लोकतंत्र में मिले अधिकार के बल स्वयं पेंशनधारी हो गए, हर काम की कीमत मनमाने ढंग से वसूल करने लगे। देश में टैक्स का दायरा बढ़ता गया, उद्योग धंधे बंद होते गए, महंगाई, मुनाफाखोरी बढ़ती रही और जनता का मत पाकर सत्ता में चूर रहे।

आखिर इस तरह के हालत के लिए कौन जिम्मेदार है? आज देश को अन्ना की जरूरत क्यों पड़ गई? दरअसल देश की जनता अन्ना के माध्यम से अपने चुने नुमाइंदों एवं सरकार से पूछना चाहती है। संसद का प्रतिनिधि सांसद तो देश के एक छोटे से भाग से चुनकर आता है, आज अन्ना के साथ तो पूरा देश दिखाई दे रहा है, जिस तरह कभी अंग्रेजों के खिलाफ छिड़ी जंग में महात्मा गांधी के साथ हो चला था। क्या यह सब कुछ सरकार में बैठे नुमाइंदों को दिखाई नहीं देता या जानबूझकर अनजान बन धृतराष्ट्र की तरह सत्ता मोह में डूब चले हैं।

देश में सभी को अपनी बात रखने का अधिकार है। जनलोकपाल विधेयक, जो जनमानस की आवाज बन चुका है, उसे मुद््दा एवं अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनाकर इसे संसद में जनता द्वारा चुने प्रतिनिधियों के समक्ष आम चर्चा के लिए रखने का मानस बनाकर देश में उभरती जन-आवाज की अवधारणा का आदर करते हुए सरकार को इस ज्वलंत समस्या का समाधान शीघ्र से शीघ्र निकालना चाहिए। सरकार भी जब भ्रष्टाचार मिटाने की बात करती है तो उसे सिविल सोसायटी द्वारा निर्मित जनलोकपाल विधेयक को संसद में रखने में कोई एतराज नहीं होना चाहिए। इस संदर्भ में की गई देरी, जन आवाज को दबाने की अनर्गल कुचेष्टा देश को गंभीर संकट में डाल सकती है। आज इस तरह के हालात पर विश्व की नजरें टिकी हुई हैं। देश हित में जनलोकपाल के मुद््दे पर सरकार को गंभीरता से मंथन कर सकरात्मक कदम शीघ्र से शीघ्र उठाना चाहिए, जिससे देश में अमन चैन बना रहे। (एम सी एन)

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