नक्सलियों के स्वभाव में परिवर्तन कब, क्यों और कैसे?

- योगेश कुमार गोयल

(मीडिया केयर नेटवर्क)

गत 6 अप्रैल को छत्तीसगढ़ स्थित दंतेवाड़ा में तो नक्सलियों ने अपने जाल में फंसाकर अब तक का सबसे बड़ा नक्सली हमला करके करीब 76 सुरक्षाकर्मियों को मौत की नींद सुलाकर सरकार के ‘नक्सल विरोधी अभियान’ की धज्जियां उड़ा दी। 15 फरवरी 2010 को भी मिदनापुर के सिलदा क्षेत्र में नक्सलियों ने अपने हमले में ईस्टर्न फ्रंथ्अयर राइफल्स के 24 जवानों की हत्या कर दी थी। इसके अलावा 22 मई 2009 को नक्सलियों ने गढ़चिरौली के जंगलों में 16 पुलिसवालों को मौत के घाट उतार दिया था जबकि 16 जुलाई 2008 को उड़ीसा के मलकानगिरी में नक्सलियों ने विस्फोट करके पुलिस वाहन उड़ाकर 21 जवानों को मार डाला था। सवाल यह है कि देश में नक्सली संगठनों के स्वभाव में परिवर्तन कब, क्यों और कैसे आया?
वर्ष 1990-91 के आते-आते नक्सलवादी आतंकवाद के स्वभाव में काफी बदलाव आने लगा था। इस बदलाव के चिन्ह बिहार के नक्सलवादी संगठनों में स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगे थे। आन्दोलन के कई उग्रवादी नेताओं ने बंदूक की नाल से निकलने वाली क्रांति का स्वप्न छोड़कर लोकतांत्रिक तरीके से सामाजिक व्यवस्था को बदलने की बात भी सोचनी आरंभ कर दी थी। यह बदलाव किसी दिव्य शक्ति के चमत्कार के कारण नहीं हुआ था। पहले साम्यवादी रूस में खुलेपन की हवा चली, फिर माओवादी चीन की कटटरता में कमी आई, धीरे-धीरे विश्व साम्यवाद के तेवर बदलने शुरू हुए और अंत में नक्सली आतंकवाद ने शक्ति के हाथ सहमति की ओर बढ़ाने शुरू किए।
बिहार में भोजपुर जिले का इकवारी गांव सबसे पहले नक्सलवादी आतंक का केन्द्र बना था। यह बात 1970 के आसपास की है। फिर इसका प्रभाव तेजी से फैला और देखते ही देखते बिहार के 30 से भी अधिक जिलों में नक्सलवादियों का आतंक छा गया। इनमें करीब 12 जिले तो ऐसे थे, जहां नक्सलवादी निर्णायक और महाशक्ति के रूप में उभरकर सामने आए थे और भूमिहीन, गरीब और शोषित जनता इनकी ओर तेजी से खिंच रही थी।
बिहार के नक्सलवाद से प्रभावित क्षेत्रों में करीब आधा दर्जन नक्सलवादी गुट सक्रिय रहे हैं लेकिन इन सबमें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी लेनिनवादी) अपने प्रभाव के दृष्टिकोण से सर्वाधिक शक्तिशाली बनकर सामने आई। इसके अलावा पार्टी यूनिटी, सी.ओ.सी., माओवादी सेंटर सहित कई अन्य गुट भी बिहार में नक्सली आतंक के लिए चर्चा में आए। इस बीच जिन संगठनों ने खुलेपन से इस तरफ अपने कदम बढ़ाए, उनमें इंडियन पीपुल्स फ्रंट तथा बिहार प्रदेश किसान सभा के नाम लिए जा सकते हैं।
नक्सली उग्रवाद में खुलेपन की हवा चली तो पार्टी यूनिटी जैसे कट्टरवादी गुट ने भी अपने नेतृत्व में मजदूर किसान संग्राम का गठन किया और लोक संग्राम मोर्चा भी बंदूक के साथ बैलेट की तरफ मुड़ता दिखाई दिया। नक्सलवादी आतंकवाद जब लोकतांत्रिक प्रक्रिया की ओर बढ़ा तो इस बदलाव के अंतर्गत इंडियन पीपुल्स फ्रंट को संसद में अपना पहला प्रतिनिधि भेजने में सफलता प्राप्त हुई।
उधर आंध्र प्रदेश के कई नक्सलपंथियों ने भी चुनाव में हिस्सा लिया। बिहार से भाकपा (मार्क्सवादी लेनिनवादी) का सबसे पहला प्रतिनिधि 1989 में आरा संसदीय क्षेत्र से चुनाव जीतकर संसद में पहुंचा। इसी पार्टी का दूसरा सांसद असम से जीतकर आया था लेकिन थोड़ी सी संसदीय सफलताओं के अलावा नक्सलवादी संगठन कोई बड़ी छलांग नहीं लगा सके।
आखिरकार कई संगठन यह सोचने पर विवश हो गए कि नक्सलपंथी राजनीति का मुख्य मार्ग क्या हो? दरअसल नए जातीय ध्रुवीकरण तथा मध्यमवर्गीय जातियों के जुड़ाव ने एक अलग और नई स्थिति उत्पन्न कर दी। बिहार में नक्सलवादी वामपंथ का कौनसा मॉडल खड़ा हो, यह प्रश्न नक्सलवादियों के सामने मुंह बाये खड़ा हो गया। बंदूक की नाल से क्रांति के पक्षधर नक्सलवादी एक नए वैचारिक द्वंद्व के चक्रवात में फंस गए।
नक्सली आतंकवाद ने पश्चिम बंगाल से बिहार की ओर अपने कदम बढ़ाए। भोजपुर जिले में उसे अपने अनुकूल वातावरण मिला और धीरे-धीरे यह आग मध्य बिहार के 8 जिलों में फैल गई। भोजपुर, रोहतास, पटना, नालंदा, गया, जहानाबाद, औरंगाबाद तथा नवादा में नक्सलवाद ने अपनी शक्ति के झंडे गाड़ दिए। 1981-82 के बाद नक्सलियों का सैलाब धनबाद, हजारीबाग, पलामू, रांची, सिंहभूम, गिरिडीह की तरफ बढ़ने लगा और उन्होंने इन क्षेत्रों के औद्योगिक क्षेत्र में अपना प्रभाव जमा लिया।
इंडियन पीपुल्स फ्रंट के झण्डे तले हजारों युवक एवं छात्र एकत्रित हो गए। खेत मजदूर एवं भूमिहीन किसान उनके नारे पर सिर पर कफन बांधकर मैदान में निकल आए। नक्सलवादी संगठनों का प्रभाव इतना बढ़ गया कि उनकी एक आवाज पर बिहार की कोयला खानों में काम बंद हो जाता और माल की ढ़ुलाई रोक दी जाती।
जनता दल सरकार ने इस स्थिति को काफी गंभीरता से लिया। तब बिहार में नक्सलवादियों का भारी आतंक था और कानून व्यवस्था चरमराकर रह गई थी। इंडियन पीपुल्स फ्रंट ने तब अपना उग्रवादी मोर्चा ‘एक्यूट’ खोलकर ‘शक्ति’ और ‘सहमति’ दोनों रास्तों पर चलना शुरू कर दिया। ‘एक्यूट’ हिंसक वारदातें कर रहा था। उधर पुलिस उसकी हिंसक गतिविधियों पर अंकुश लगाने के लिए सक्रिय थी परन्तु स्थिति ने कुछ ऐसी पलटी खाई कि जनता दल के लोकप्रिय होते-होते दलित और शोषित व्यक्तियों के समीकरण बदलने लगे।
वे जातियां, जो नक्सलपंथ की सबसे प्रमुख आधार थी, जनता दल की ओर आकर्षित हुई। लालू प्रसाद यादव पहले से ही अपनी नक्सल विरोधी राजनीति के लिए प्रसिद्ध थे। उनके साथ भूमिहार, राजपूत, पिछड़ी जातियों के भू-स्वामी तथा धनी किसान भी जुड़ गए। इस प्रकार जनता दल के नाम पर जो नया मोर्चा बना, उसने नक्सलपंथ को काफी जोरदार झटका दिया और नक्सलवादी संगठनों में विभाजन की प्रक्रिया शुरू हो गई।
नक्सलवाद के उग्रवादी संगठनों में अब खुलेपन की हवा और तेज चलने लगी। नक्सलियों के सबसे बड़े संगठन ‘लिबरेशन’ ने अपनी राजनीतिक कार्रवाई को भी अब समाचारपत्रों में प्रकाशित कराना शुरू कर दिया जबकि इससे पहले संगठन की गतिविधियां पूर्णतया गुप्त रखी जाती थी। संगठन द्वारा प्रकाशित ‘लिबरेशन’ और ‘लोकयुद्ध’ भी अब खुले बाजार में दिखाई देने लगे।
नक्सलवाद में यह एक वैचारिक बदलाव था, जो धीरे-धीरे आया। लिबरेशन के नेता यह स्वीकार करने लगे कि यूरोप के साम्यवादी देशों में लोकतंत्र की जो आंधी चली, उसने नक्सलवाद के कट्टरपंथ को भी अपनी चपेट में ले लिया और बंदूक के महत्व को कम करके क्रांति के दूसरे रास्तों की तरफ भी सोचने के लिए विवश कर दिया। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण अंतर्राष्ट्रीय साम्यवादी सोच में आया बदलाव ही था। इस सोच की कट्टरवादिता जैसे-जैसे ढ़ीली पड़ी, वैसे-वैसे नक्सलवाद का हिंसक रूप नर्म पड़ता गया परन्तु अभी यह समझ लेना एक भारी भूल ही होगी कि नक्सलवादी हिंसा से प्रभावित भू भागों को पूर्ण रूप से हिंसा से मुक्ति मिल गई है। इसका स्पष्ट संकेत पिछले कुछ समय में हुई नक्सली हिंसा की कुछ बड़ी वारदातों से मिल ही गया है।
आतंकवाद अथवा उग्रवाद चाहे जहां भी और जिस भी रूप में हो, उसके पीछे कोई विचारधारा ही काम कर रही होती है। यह सकारात्मक भी हो सकती है और नकारात्मक भी लेकिन दोनों स्थितियों में इसका स्वभाव हिंसक ही होता है। इसका तोड़ पुलिस और प्रशासन इतना नहीं है, जितना मूल समस्याओं को हल करके इस प्रकार की विचारधारा का रूख मोड़ने के प्रयास में है। खेद की बात है कि शासन के स्तर पर हम शक्ति का तो भरपूर इस्तेमाल करते हैं किन्तु वैचारिक संघर्ष करते हुए इसे तोड़ने के लिए आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक कदम बहुत कम उठाते हैं लेकिन यह सफलता का नहीं वरन् असफलता का ही मार्ग है। (एम सी एन)
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Comments

Popular posts from this blog

तपती धरती और प्रकृति का बढ़ता प्रकोप