क्षितिज के पार झांकती लड़की


अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस (8 मार्च) पर विशेष

-- घनश्याम बादल (मीडिया एंटरटेनमेंट फीचर्स)

अब उसे आप ‘देवी’ कहें या वेदी पर चढ़ा दें, उसे भाई की दोयम ‘बाई’ (‘बहन’ का राजस्थानी पर्याय) बनाकर उसकी प्रतिभा का गला घोंट दें या गमले में सजे बोनसाई के पौधे की तरह सजावट की वस्तु बनाकर धूप, गर्मी, पानी में मरने-खपने के लिए भाग्य के भरोसे छोड़ बेफिक्र होकर बैठ जाएं, उसे छुई-मुई बनाकर घर में छुपाकर रखें या फिर जो कुछ जी में आए, करें। हर बार अपनी मर्दानगी, पौरूष या नर होने के गर्व की तुष्टि-पुष्टि ही ज्यादा सामने आती रही है। और यह सब कोई आज, कल या परसों की नहीं बल्कि बरसों की मनोवृत्ति का यथार्थ है तथा इसकी भुक्तभोगी रही है लड़की।

आदम की हव्वा रही हो या महाभारत की द्रौपदी, मुगलकाल की अनारकली या राजपूत काल की पद्मिनी, उसे बचपन से ही ऐसे पाला-पोसा, सिखाया-पढ़ाया गया कि बड़ी होकर भी दासता या आत्मबलिदान, बलि की पात्र, त्याग की मूर्ति जैसे मूल्य बस उसी के हिस्से आए। बचपन में भाई, युवावस्था में पति के नाम पर पुरूष प्रधानता को उस पर न केवल लादा गया अपितु दबने पर उसे ‘आदर्श’ और विरोध करने पर ‘पतिता’ ‘पथभ्रष्टा’ जैसी संज्ञाएं भी मिली यानी उसे मिला ‘अंधकार’ और ‘उजाले’ पर रखा गया कब्जा।

मगर फिर भी लड़की पूरी ‘लड़का’ निकली। कैक्ट्स की तरह कहीं भी उगने का माद्दा उसने खुद में पैदा किया, वह भी कांटे न उगाते हुए, फूल खिलाते हुए। वही है, जो इन तमाम विपरीत परिस्थितियों व मूल्यों के अवमूल्यन के दौर में न केवल ‘पीपल’ सी पवित्र रही, सृजना की ऑक्सीजन लुटाती, संजोती, बांटती रही और किसी भी रूखे से रूखे ‘बरगदों’, ‘नीमों’ पर पूरे जज्बे के साथ उगती रही है।

बेशक आज की लड़की अग्नि परीक्षा देने को उद्यत सीता नहीं रही वरन् सिर उतारने को तत्पर सैनिक की भूमिका तक आ चुकी है। उसने बावजूद दैहिक, भौतिक सीमाओं के, बावजूद कोमलांगी होने के और संवेदना से परिपूर्ण रहकर भी अपराजेय पराक्रम का प्रदर्शन किया है। जीवन के हर क्षेत्र के चूल्हे-चौके के आंख फोडू धुएं से बाहर निकल लड़की ने उजास बांटी है, प्रकाश दिया है। सहज शब्दों में ही नहीं, आंकड़ों के गवाक्ष से देखने पर भी आज लड़की बहुत बड़ी और बहुत आगे निकल आई साफ नजर आने लगी है।

प्राथमिक शिक्षा से कभी वंचित रहने वाली लड़की ने महज दो दशक में ही शिक्षा के क्षेत्र में अपना वर्चस्व कायम कर लिया है। परीक्षा में तो ऐसे लगने लगा है कि मानो पहले उच्च स्थानों को उसने अपने नाम आरक्षित ही कर लिया है। पाठ्य सहगामी गतिविधियों में सांस्कृतिक क्षेत्र से आगे बढ़ अब ताकत के खेलों, मार्शल आर्ट्स, जूडो कराटे, कुंग-फू, ताईक्वांडो जैसे खेलों में अपने कौशल के द्वारा महारत हासिल कर गुंडों, मवालियों और बलात्कारियों से लड़ने की शुरूआत भी कर दी है। इसलिए सावधान! लड़की बढ़ रही है, लड़ रही है और पूरी तरह अड़ रही है। अब वह ‘बोनसाई’ बन बालकनी में सजने को तैयार नहीं है वरन् उसने अपनी जड़ें जमाने के लिए जमीन पाने की जंग का ऐलान पूरी शिद्दत से कर भी दिया है।

लड़की अब न तो ‘बालिका वधू’ बन लुटने, पिटने, पिसने को तैयार है और न ही सात फेरों के चक्कर में उलझ अपने कैरियर का बलिदान देने वाली रही है वरन् उसने खुद को खुद के लिए जीने व अपना श्रेष्ठ पाने, देने की मानसिकता में ढ़ाल लिया है। अब वह हाथ पसारकर लेने या भाग्य से मिल जाने की स्थिति से निकल अपना हक छीनने की सोचने ही नहीं लगी है बल्कि वैसा ही आचरण करने में संकोच भी नहीं करती है। भले ही मादा भ्रूण हत्या कर पुरूष उसे संख्यात्मक दृष्टि से दबोचने पछाड़ने में जुटा हो पर लड़की है कि काबू में रहने को तैयार नहीं है अपितु उसने प्रछन्न चेतावनी भी दे दी है कि यदि मादा भ्रूण हत्या न रूकी तो भी पछताना ‘नर’ को ही है क्योंकि सृष्टि के असंतुलन में वह अकेला लड़ नहीं, मात्र भटक सकता है और सच में, इस भटकाव से बचने की जरूरत भी है आज।

आज के ‘सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ के इस युग में ‘लड़की’ ने लड़कर खुद को ‘फिट टु फिटेस्ट’ की पोजीशन में तो पहुंचा ही दिया है पर अभी भी समाज के चिंतन को बदलने में वह कामयाब नहीं हुई है। हालांकि टी. वी. के गांव-गांव तक लड़की केन्द्रित विज्ञापन पहुंचे जरूर हैं पर अभी भी वे गहन चिंतन की रेखा खींचने में कामयाब नहीं हो पाए हैं, दूरदराज के गांवों की गोरियां आज भी आत्म निर्णय की स्थिति से कोसों दूर हैं, शिक्षा का मतलब आज भी वहां साक्षरता या फिर ज्यादा से ज्यादा प्रमाण पत्र पाकर अच्छा घर व वर पाने का साधन मात्र है।

अब सीधी सी बात है कि यदि एक हजार नर शिशुओं पर सिर्फ नौ सौ के आसपास लड़कियां ही होंगी तो आने वाले समय में बहनों, मांओं, भाभियों, चाची, ताईयों, आंटियों व दुल्हनों का अकाल तो पड़ेगा ही न और तब कहीं रिश्तों की मर्यादा पूर्णतः ध्वस्त न हो जाए, जीवनसाथी की तलाश और चाह संघर्ष एवं खूनखराबे में न बदल जाए, इस पर आज ही गंभीरतापूर्वक सोचने एवं निर्णयात्मक कदम बढ़ाने की सख्त जरूरत है और जरूरत को अपनी क्षमता, योग्यता, कर्मठता, जिजीविषा व कौशल से रेखांकित कर रही है आज की लड़की। (मीडिया एंटरटेनमेंट फीचर्स)

(लेखक ‘मीडिया एंटरटेनमेंट फीचर्स’ के लिए लिखते रहे हैं)

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