आफत बना मोबाइल


बढ़ते खतरे मोबाइल फोन के


--- योगेश कुमार गोयल ---
पिछले कुछ वर्षों में दुनिया भर में मोबाइल फोन (सेलफोन) का उपयोग आश्चर्यजनक रूप से बहुत तेजी से बढ़ा है। कुछ साल पहले तक मोबाइल फोन रखना जहां स्टेटस सिंबल की निशानी था, वहीं अब कामकाजी लोग हों या कालेज अथवा स्कूल के छात्र-छात्राएं, यहां तक कि रिक्शा चालक और भिखारी भी, हर कोई मोबाइल फोन पर बातें करता दिखाई पड़ता है। कहना गलत न होगा कि मोबाइल फोन आज हमारा चौबीसों घंटे का साथी बनता जा रहा है। दरअसल आए दिन मोबाइल फोन की बढ़ती खूबियों ने इसे इतना उपयोगी बना दिया है कि एक पल के लिए भी इसके बिना रह पाना अब असंभव सा प्रतीत होने लगा है लेकिन इसके साथ-साथ यह भी सच है कि मोबाइल फोन से स्वास्थ्य संबंधी खतरे भी बढ़ते जा रहे हैं और यही वजह है कि मोबाइल फोन से होने वाले स्वास्थ्य संबंधी दुष्प्रभावों पर पिछले कुछ वर्षों से बहस छिड़ी है।

दरअसल बड़ी-बड़ी कम्पनियां भी अपने प्रोड्क्ट्स बाजार में लांच करते समय उनकी खूबियां तो खूब बढ़ा-चढ़ाकर बताती हैं पर उनके साइड इफैक्ट्स को न सिर्फ बड़ी चालाकी से छिपा लिया जाता है बल्कि अगर किसी अनुसंधान अथवा अध्ययन के जरिये उन खामियों को उजागर करने की कोशिश भी की जाए तो उन अनुसंधानों को ही झुठलाने की कवायद शुरू हो जाती है। बिल्कुल यही आलम पिछले कुछ वर्षों से मोबाइल फोन इंडस्ट्री में भी देखा गया है। संभवतः यही वजह है कि मोबाइल फोन के विकिरण और मानव स्वास्थ्य के बीच का संबंध अभी तक पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हो पाया है लेकिन इस संबंध में अब तक जितने भी शोध हुए हैं, उन सभी से यही निष्कर्ष सामने आया है कि मानव स्वास्थ्य पर मोबाइल से निकलने वाले विकिरण का काफी बुरा प्रभाव पड़ता है। यहां तक कि इस विकिरण से मोबाइल फोन के उपयोगकर्ता को सिर व गले का कैंसर होने तक की संभावना भी बरकरार रहती हैं।

मानसिक अस्थिरता एवं याद्दाश्त से संबंध

मोबाइल फोन के भीतर एक शक्तिशाली ट्रांसमीटर लगा होता है, जिसमें से माइक्रोवेव विकिरण निकलता रहता है, जिसका असर मोबाइल फोन के उपयोग की समय सीमा के अनुसार दिनोंदिन मानव शरीर की कार्यप्रणालियों पर पड़ता रहता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि मोबाइल फोन से व्यक्ति की मानसिक अस्थिता एवं याद्दाश्त का घनिष्ठ संबंध है। दरअसल मोबाइल फोन से एक प्रकार की विद्युतीय चुम्बकीय शक्ति प्रवाहित होती रहती है, जो व्यक्ति की एकाग्रता भंग करने में अहम भूमिका निभाती है। इस संबंध में कुछ समय पूर्व वाशिंगटन वि.वि. के माइक्रोवेव रेडिएशन विशेषज्ञ डा. हेनरी लॉर्ड द्वारा किए अनुसंधान के काफी चौंका देने वाले नतीजे सामने आए थे। डा. लॉर्ड के अनुसार उन्होंने मोबाइल से निकलने वाले रेडिएशन का चूहों पर प्रयोग किया तो देखा कि चूहों पर इसका बहुत गहरा असर होता है। डा. लॉर्ड के अनुसार उन्होंने करीब 45 मिनट तक चूहों पर कम स्तर की किरणों का प्रयोग करने पर पाया कि इससे याद्दाश्त तथा मस्तिष्क के तंतु तो प्रभावित होते ही हैं, ध्यान केन्द्रित करने में भी बाधा उत्पन्न हो जाती है। डा. लॉर्ड के अनुसार मोबाइल के लंबे समय तक उपयोग से मस्तिष्क के तंतुओं पर सीधा प्रभाव पड़ता है और इसका दुष्प्रभाव कैंसर में भी परिणत हो सकता है।

मोबाइल फोन का विकिरण

मोबाइल फोन के विकिरण की सबसे ज्यादा मात्रा इसके एंटीना के आसपास ही होती है और विशेषज्ञों का मानना है कि विकिरण का करीब 60 फीसदी भाग मोबाइल का उपयोग करने वाले व्यक्ति के सिर द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है। कुछ अनुसंधानकर्ताओं का तो यह भी कहना है कि मोबाइल से होने वाला विकिरण कई बार तो मस्तिष्क के एक इंच भीतर तक मार करता है और विकिरण की किरणें सिर के आसपास के हिस्से को भेदती रहती हैं। हालांकि कुछ लोगों की धारणा है कि इंटरनल एंटीना वाले मोबाइल फोन सुरक्षित हैं किन्तु इस बारे में भी अनुसंधानकर्ताओं का कहना है कि इंटरनल एंटीना से भी बहुत ज्यादा विकिरण होता है। चूंकि मोबाइल के एंटीना के इर्द-गिर्द ही विकिरण की मात्रा सर्वाधिक होती है, अतः विशेषज्ञों द्वारा अब ऐसे सुरक्षित मोबाइल सेटों की मांग की जाने लगी है, जिनके एंटीना नीचे की तरफ हों ताकि विकिरण का प्रभाव मस्तिष्क तथा सिर पर कम से कम पड़ सके।

मोबाइल फोन के विकिरण का स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव

मोबाइल फोन के इस्तेमाल से स्वास्थ्य संबंधी खतरे किस कदर बढ़ रहे हैं, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि कुछ समय पूर्व ब्रिटेन के स्कूलों में छात्रों द्वारा स्कूल में मोबाइल फोन लाए जाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। प्रतिबंध लगाए जाने की प्रमुख वजह थी कि इसके इस्तेमाल से कम उम्र के बच्चों को भी मस्तिष्क ट्यूमर हो सकता है लेकिन अब यह समस्या सिर्फ बच्चों की ही समस्या नहीं रह गई है बल्कि बड़े भी इससे अछूते नहीं रहे हैं। मोबाइल के उपयोग से मानव शरीर की कोशिकाओं की क्रियाशीलता में परिवर्तन होता है, जिससे स्वास्थ्य संबंधी विभिन्न समस्याएं सामने आती हैं। थकान, सिरदर्द, चक्कर आना, त्वचा में झनझनाहट, खिंचाव व जलन होना मोबाइल के विकिरण से होने वाले सामान्य दुष्प्रभाव हैं जबकि स्वीडन में हुए एक अध्ययन में बताया गया है कि मोबाइल फोन का ज्यादा उपयोग करने वाले व्यक्तियों को ब्रेन ट्यूमर होने का खतरा सामान्य व्यक्ति की तुलना में ढ़ाई गुना अधिक होता है। इसी प्रकार एक जर्मन अध्ययन के अनुसार मोबाइल के उपयोग से रक्तचाप भी बढ़ता है और कई बार तो यह इस स्थिति तक पहुंच जाता है कि उपयोगकर्ता को हार्ट अटैक भी हो सकता है।

एक अध्ययन के अनुसार मोबाइल फोन का प्रतिदिन दिन में चार या अधिक बार इस्तेमाल करने वालों को इस प्रकार की समस्याओं का सामना अधिक करना पड़ता है। दरअसल यह तथ्य जगजाहिर है कि विद्युत चुम्बकीय विकिरण का तरह-तरह के कैंसर तथा अन्य खतरनाक बीमारियों से सीधा संबंध माना जाता रहा है और इस विकिरण का सर्वाधिक प्रभाव शरीर के ऐसे हिस्सों पर पड़ता है, जहां ब्लड सर्कुलेशन कम से कम हो। इसकी वजह यह होती है कि रक्त प्रवाह न्यूनतम होने के कारण उस अंग में समाई हुई गर्मी बाहर नहीं निकल पाती। इस गर्माहट का स्तर इन विद्युत चुम्बकीय तरंगों की आवृत्ति तथा शरीर के संबंधित अंग अथवा उत्तक के प्रकार पर निर्भर करता है।

जीएसएम हैंडसेट प्रयोग करने वाले 18 से 45 वर्ष आयु वर्ग के लोगों पर अध्ययन करने के बाद पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीच्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च (पीजीआईएमईआर) के आटोलेरिंगोलाजी विभाग (नाक, कान, आंख विभाग) के प्रमुख डा. नरेश पांडा का कहना है कि जो लोग चार साल से ज्यादा अवधि और तीस मिनट प्रतिदिन से ज्यादा समय तक मोबाइल फोन का प्रयोग करते हैं, वे अपनी सुनने की शक्ति खो सकते हैं। ईएनटी स्पेशलिस्ट डा. नरेश पांडा के मुताबिक सुनने की शक्ति उसी कान की अधिक खत्म होती है, जिसका उपयोग मोबाइल पर बात करने के लिए अक्सर किया जाता है।

डा. पांडा बताते हैं कि अगर कान भरा-भरा लगता हो, गर्म लगता हो और अजीबोगरीब आवाजें सुनाई देती हों तो यह आपके लिए बुरा संकेत है और इसे हल्के से नहीं लेना चाहिए। उनका कहना है कि मोबाइल पर किए गए इस अध्ययन का उद्देश्य यह पता लगाना था कि अगर लंबे समय तक मोबाइल फोन का उपयोग किया जाता है तो श्रवण शक्ति तथा केन्द्रीय ऑडिटरी पाथ-वे पर इसका कोई असर होता है या नहीं।

स्वीडन की लुंड यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार मोबाइल का अधिक उपयोग व्यक्ति को समय से पहले बूढ़ा और जर्जर बना सकता है। शोधकर्ताओं के अनुसार मोबाइल से निकलने वाली माइक्रोवेव्स मस्तिष्क की कोशिकाओं पर घातक असर डालकर व्यक्ति को बुढ़ापे की ओर धकेलती हैं। स्वीडिश शोधकर्ता हालांकि यह दावा भी करते हैं कि मोबाइल फोन से निकलने वाली चुम्बकीय तरंगें इतनी अधिक प्रभावशाली नहीं होती कि इनकी वजह से दिमागी कैंसर उत्पन्न हो जाए पर साथ ही वो यह भी कहते हैं कि आने वाले समय में संचार उपकरण इतने बढ़ जाएंगे कि दुनिया का कोई भी हिस्सा इन सूक्ष्म तरंगों की पहुंच से बाहर नहीं होगा अर्थात् पूरी दुनिया सूक्ष्म तरंगों (माइक्रोवेव्स) के अथाह समुद्र में घिर जाएगी। शोधकर्ताओं का कहना है कि उन्होंने 15 वर्षों तक हर एंगल से निरन्तर शोध करने के पश्चात् ही यह निष्कर्ष निकाला है। स्वीडन में ही करीब 750 लोगों पर किए गए एक अन्य अध्ययन में यह भी पता चला है कि लगातार 10 वर्षों तक मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते रहने से कानों में ट्यूमर होने का खतरा भी अपेक्षाकृत चार गुना तक बढ़ जाता है।

मोबाइल के विकिरण के मानव स्वास्थ्य पर पड़ते दुष्प्रभावों के मद्देनजर कुछ समय से वैज्ञानिकों द्वारा यह मांग की जाने लगी है कि सेल्युलर कम्पनियों के लिए यह अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए कि वे अपने सेटों पर विकिरण की दर संबंधी लेबल अवश्य लगाएं। बताया जाता है कि कुछ देशों में मोबाइल फोन निर्माताओं ने मोबाइल फोन धारक द्वारा सोखे जाने वाले विकिरण को नापने के लिए नए अंतर्राष्ट्रीय मानक स्वीकार करने के बाद विकिरण की दर (स्पेसिफिक एबसोपर््शन रेट) का लेबल हैंडसेटों पर लगाना शुरू भी कर दिया है लेकिन भारत में सरकारी सजगता के अभाव में हैंडसेटों पर विकिरण की दर अंकित किए जाने की दिशा में कोई पहल नहीं की गई है।

डी. एन. ए. क्षतिग्रस्त कर रहे हैं मोबाइल

यूरोप में किए गए एक शोध में बताया गया है कि मोबाइल से निकलने वाली हानिकारक तरंगें डी एन ए को भी क्षतिग्रस्त करती हैं। 7 यूरोपीय देशों में 12 शोध समूहों द्वारा लगातार 4 वर्षों तक किए गए शोध के बाद वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला है। गौरतलब है कि डीएनए (डीऑक्सी राइबोस न्यूक्लिक एसिड) का शरीर में बिल्कुल वही महत्व होता है, जो किसी इमारत में लगी ईंटों का होता है। शोधकर्ता बताते हैं कि डीएनए मॉलीक्यूल जैसा ही दिखता है, जैसे किसी सीढ़ी को मोड़कर रख दिया जाए। शरीर चलाने वाली इस मशीन में जब कोई खराबी आती है तो या तो कोशिका मर जाती है या अनियंत्रित व्यवहार करने लगती है। डीएनए की मरम्मत करने की जिम्मेदारी उसके ऊपरी आवरण अर्थात् कोशिका की होती है लेकिन कभी-कभी लगातार प्रहार होते रहने के कारण इसकी मरम्मत संभव नहीं हो पाती।

शोधकर्ताओं ने मोबाइल फोन से निकलने वाले इलैक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन का प्रयोग इंसानों और जानवरों की कोशिकाओं पर किया तो डीएनए में टूटन और क्षति नोटिस की गई। शोधकर्ताओं का कहना है कि मोबाइल फोन का अत्यधिक इस्तेमाल मानव कोशिका में छिपे डीएनए के असामान्य व्यवहार का कारण बनता है। डीएनए के क्षतिग्रस्त होने या टूटने से विभिन्न प्रकार के कैलरस ट्यूमर पैदा होने का खतरा बन जाता है, जो निरन्तर बढ़ते रहते हैं।

ब्रेन ट्यूमर होने पर मोबाइल कम्पनियों पर हर्जाने के मुकद्दमे

मोबाइल फोन के इस्तेमाल से ब्रेन ट्यूमर होने के पश्चात् हर साल विदेशों में कुछ लोगों द्वारा मोबाइल फोन बनाने वाली कम्पनियों के खिलाफ करोड़ों डॉलर हर्जाने के मुकद्दमे दर्ज कराए जा रहे हैं। कुछ वर्ष पूर्व अमेरिका के एक न्यूरोलॉजिस्ट ने भी यह कहते हुए मोबाइल सेट बनाने वाली एक कम्पनी के खिलाफ 80 करोड़ डॉलर हर्जाने का ऐसा ही एक मुकद्दमा ठोंक दिया था कि कम्पनी ने अपने उत्पाद के दुष्प्रभावों के बारे में अपने ग्राहकों को उचित जानकारी नहीं दी। दरअसल 45 वर्षीय डा. क्रिस्टोफर न्यूमैन नामक इस न्यूरोलॉजिस्ट को 1992 से 1998 तक काम के दौरान मोबाइल फोन का लगातार इस्तेमाल करने से ब्रेन ट्यूमर हो गया था। डा. क्रिस्टोफर ने मोटरोला सहित कुल 8 दूरसंचार कम्पनियों पर बाल्टीमोर में मुकद्दमा दायर करते हुए कम्पनी पर आरोप लगाया था कि कम्पनी अपने उपभोक्ताओं को यह बताने में विफल रही है कि उसका सेलफोन उच्च आवृत्ति की रेडियो तरंगें पैदा करता है, जिससे कैंसर तथा अन्य खतरनाक बीमारियां हो सकती हैं। डा. क्रिस्टोफर का कहना था कि अगर उन्हें सेलफोन के इन घातक दुष्प्रभावों के बारे में पता होता तो वे इसका उपयोग ही नहीं करते।

बच्चों पर मोबाइल फोन का दुष्प्रभाव

विशेषज्ञों का मानना है कि बच्चों को मोबाइल फोन से यथासंभव दूर रखने में ही हमारी भलाई है क्योंकि इससे निकलने वाली तरंगों से बच्चों को अपेक्षाकृत अधिक नुकसान होने की संभावना रहती है। प्रमुख शोधकर्ता सर विलियम स्टीवर्ट का कहना है कि विशेष परिस्थितियों में ही बच्चों को मोबाइल फोन देना चाहिए। एक अनुमान के अनुसार ब्रिटेन में ही 7-10 वर्ष आयु के 25 फीसदी बच्चे मोबाइल फोन का उपयोग करते हैं।

ब्रिटेन के स्वास्थ्य विभाग द्वारा कराए गए एक शोध के अनुसार 16 वर्ष से कम आयु के जो बच्चे मोबाइल फोन का ज्यादा उपयोग करते हैं, उन्हें मिर्गी होने का खतरा काफी बढ़ जाता है। इसके अलावा उनमें सिरदर्द, याद्दाश्त में कमी तथा नींद न आने जैसी कई अन्य शिकायतें भी हो सकती हैं। शोध करने वाली टीम के प्रमुख सदस्य डा. गेरार्ड हायलैंड के अनुसार मोबाइल फोन से कम आवृत्ति की किरणें निकलती हैं, जिन्हें ‘नॉन थर्मल रेडिएशन’ भी कहा जाता है। ये किरणें धीरे-धीरे मनुष्य की कोशिकाओं के स्वरूप को बदल देती हैं। बच्चों के लिए ये ज्यादा खतरनाक होती हैं क्योंकि बच्चों का इम्यून सिस्टम (प्रतिरक्षा तंत्र) पूर्ण रूप से विकसित नहीं हो पाता है। डा. हायलैंड के अनुसार मोबाइल फोन से निकलने वाली माइक्रोवेव्स का कोशिकाओं पर उसी प्रकार प्रभाव पड़ता है, जिस प्रकार रेडियो की तरंगों में व्यवधान आने पर प्रसारण गड़बड़ा जाता है। ये किरणें कोशिकाओं की मजबूती तथा उनकी वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं।

वाहन दुर्घटनाओं में मोबाइल फोन की भूमिका

आमतौर पर यह माना जाता रहा है कि वाहन चलाते समय चालक द्वारा मोबाइल पर बात करने के लिए मोबाइल फोन पकड़ने की वजह से ही उसका संतुलन गड़बड़ा जाता है और दुर्घटना होने की संभावना बढ़ जाती है किन्तु रोहड आईलैंड यूनिवर्सिटी द्वारा किए गए अनुसंधान में इस तर्क को पूर्णतया खारिज करते हुए कहा गया है कि मोबाइल फोन पर बात करते समय चालक के ‘व्यू टनर विजन’ का क्षेत्र संकुचित हो जाता है और इससे उसकी नजर बाधित होती है।

इंडस्ट्रियल इंजीनियरिंग के प्रोफेसर मनबीर सोढ़ी तथा मनोविज्ञान के प्रोफेसर जैरे कोहेन द्वारा किए गए इस अनुसंधान के दौरान उन्होंने वालंटियर ड्राइवरों को ‘आई ट्रेकिंग डिवाइस’ लगाई, जिसे सिर पर हेलमेट या ईयरफोन की तरह पहना जा सकता है। उसके बाद अनुसंधानकर्ताओं ने पाया कि कोई भी ऐसा कार्य करते समय, जिससे दिमाग पर जोर पड़ता हो, चालक की अलर्टनेस कम हो जाती है। प्रो. सोढ़ी के अनुसार सेलफोन पर बात करने के कुछ समय बाद भी चालक की अलर्टनेस वापस नहीं आती क्योंकि उसके बाद वह फोन पर की गई उस बातचीत के बारे में देर तक सोचता रहता है। प्रो. सोढ़ी के अनुसार सेलफोन पकड़ने के कारण चालक का संतुलन बिगड़ने से दुर्घटना नहीं होती बल्कि दुर्घटना की वजह वास्तव में संतुलन का बिगड़ना न होकर एकाग्रता का भंग होना है, जो सेलफोन पर बातचीत करने के कारण भंग होती है।

कैसे होता है मोबाइल फोन से कैंसर?

आस्ट्रेलिया की सिडनी यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने अपने लंबे अध्ययन के बाद बताया है कि मोबाइल फोन के उपयोग से कोशिकाओं में तनाव बढ़ता है और वे ‘हीट शॉक प्रोटीन’ छोड़ती हैं। मानव कोशिकाएं प्रायः चोट लगने अथवा संक्रमण होने की दशा में ही प्रतिक्रिया स्वरूप यह प्रोटीन छोड़ती हैं। अतः स्पष्ट है कि जब मोबाइल फोन के उपयोग से बार-बार कोशिकाएं ‘हीट शॉक प्रोटीन’ छोड़ती हैं तो इससे कोशिकाओं का सामान्य नियमन प्रभावित होता है और परिणामस्वरूप कैंसर विकसित होने लगता है। इस संबंध में सेंट विंसेट अस्पताल के इम्यूनोलॉजी रिसर्च सेंटर के प्रधान वैज्ञानिक अधिकारी डा. पीटर फ्रैंच का कहना है कि प्रोटीन में अचानक हलचल होना हालांकि शरीर का प्राकृतिक बचाव है किन्तु लंबे समय तक इसके सक्रिय रहने से कैंसर बनता है और उसके बाद उपचार करने पर भी कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं होती। डा. फ्रैंच के सहयोगी प्रो. रॉन पेनी का कहना है कि यह पहले ही सिद्ध हो चुका है कि मोबाइल फोन से निकले कम मात्रा के विकिरण भी मानव उत्तकों को प्रभावित करते हैं। वह कहते हैं कि ‘हीट शॉक’ प्रतिक्रिया के जरूरत से ज्यादा सक्रिय हो जाने से शरीर का कोशिकाओं की अनियंत्रित वृद्धि पर नियंत्रण नहीं रह जाता, इस कारण मोबाइल फोन के विकिरण की वजह से कैंसर होने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता।
- योगेश कुमार गोयल

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, तीन पुस्तकों के लेखक, तीन समाचार-फीचर एजेंसियों के प्रधान सम्पादक एवं स्तंभकार हैं)

Comments

RAJENDRA said…
bahut achchi jaankari dee hai dhanyavaad
RAJENDRA said…
bahut achchi jaankari dee hai dhanyavaad
RAJENDRA said…
bahut achchi jaankari dee hai dhanyavaad
Rahul Rathore said…
बहुत ही बढ़िया जानकारी
Rahul Rathore said…
आपकी इस पोस्ट की चर्चा "टेक-वार्ता" पर की गयी है |

http://hinditechvarta.blogspot.com/2010/07/blog-post.html
सानू जी, राजेन्द्र जी एवं राहुल जी,
टिप्पणियों के लिए धन्यवाद.

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