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बीमारियों पर नजर रखना भी है जरूरी

विशेषज्ञों की चेतावनी के बावजूद अक्सर होता यह है कि देखते ही देखते कोई महामारी फैल जाती है और फिर कुछ ही समय में हजारों जिन्दगियां निगल जाती है। हो सकता है कि आने वाले समय में फिर से ‘सार्स’ का संक्रमण फैल जाए, मंकीपॉक्स और फ्लू के नए रूप फिर से दुनिया को डराने लगें या ऐसी अजीबोगरीब बीमारियां ही दुनिया को अपनी चपेट में ले लें, जिनका हमने कभी नाम भी न सुना हो।

दरअसल इसका कारण यह है कि दुनियाभर में ऐसा कोई तंत्र ही मौजूद नहीं है, जो बीमारियों की जन्मस्थली पर ही उन्हें पकड़ने में सक्षम हो। हर साल दुनिया में फैलने वाली महामारियां दुनिया में इतने लोगों को मार देती हैं, जितने युद्ध के कारण भी नहीं मरते। इसके बावजूद युद्ध और उसकी तैयारियों पर किया जाने वाला खर्च तो जारी है लेकिन विश्व स्तर पर बीमारियों के खिलाफ लड़ने वाली संस्था ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ का बजट उस अनुपात में नहीं बढ़ता। अकेले ‘सीआईए’ पर ही जितना खर्च एक साल में किया जाता है, अगर उसका आधा भी विश्व स्वास्थ्य संगठन को मिल सके तो पता नहीं, कितने लोग असमय काल के गाल में समाने से बच जाएं। इसका प्रमुख कारण यही है कि दुनिया के बदलते सैनिक और राजनैतिक माहौल पर तो नजर रखी जा सकती है लेकिन बीमारियों पर नजर रखना बहुत मुश्किल है क्योंकि अधिकांश बीमारियों की शुरूआत उन शहरों से बहुत दूर होती है, जहां वे हजारों लोगों को मार देती हैं। अफ्रीका के जंगलों, बांग्ला देश की घनी आबादी, चीन के ग्रामीण इलाकों और गंगा के तट से फैलने वाली बीमारियां सारी दुनिया को अपनी चपेट में ले लेती हैं।

आपका बच्चा डिप्रैशन का शिकार तो नहीं?

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चेतावनी दी है कि 2020 तक डिप्रैशन सबसे बड़ी बीमारी के रूप में उभरने वाला है। कुछ समय पूर्व मुम्बई में 400 बच्चों पर किए गए एक अध्ययन के बाद यह निष्कर्ष सामने आया। इस अध्ययन से यह पता चला कि प्रत्येक पांचवा बच्चा क्रोध, आत्मविश्वास की कमी और लैंगिक परेशानी का शिकार है जबकि हर दूसरा बच्चा शिक्षा और कैरियर को लेकर अवसाद का शिकार है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानना है कि किशोरों में आत्महत्या का सबसे प्रमुख कारण अवसाद ही है और इन सबसे मां-बाप का चिंतित होना स्वाभाविक है लेकिन कई बार अवसाद को तनाव समझकर उसकी अनदेखी कर दी जाती है।

संगठन का मानना है कि तनाव तो प्यार-दुलार, अच्छे भोजन और पर्याप्त नींद लेने से ठीक हो सकता है किन्तु अवसाद प्रत्यक्ष तौर पर दिखाई नहीं देता, इसलिए इसके लिए विशेष इलाज की आवश्यकता होती है। इन परिस्थितियों को देखते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन का यह भी मानना है कि सन् 2020 में छात्रों द्वारा सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला विषय मनोविज्ञान ही होगा। (मीडिया केयर नेटवर्क)

वाकई खतरनाक हैं मोबाइल फोन

मोबाइल फोन स्वास्थ्य के लिए किस हद तक खतरनाक हैं, यह जानने के लिए दुनिया भर में लंबे समय से अध्ययन हो रहे हैं। ब्रिटिश सरकार के वैज्ञानिकों ने भी कुछ समय पूर्व ऐसे ही अध्ययनों के आधार पर मोबाइल फोन से होने वाले खतरों पर एक रिपोर्ट जारी की थी। सरकारी समूह ‘एडवायजरी ग्रुप ऑफ नॉन ऑयनाइजिंग रेडिएशन’ में सर विलियम स्टीवर्ट द्वारा किए गए अध्ययन को भी अपनी रिपोर्ट में शामिल किया। रिपोर्ट में कहा गया है कि इस बात के साक्ष्य नहीं हैं कि मोबाइल फोन स्वास्थ्य के लिए खतरनाक होता है लेकिन साथ ही रिपोर्ट में यह बात स्वीकार की गई है कि विकिरण स्तर में परिवर्तन होने पर जैविक प्रभाव हो सकते हैं। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि वे मोबाइल फोन पर अपनी बातचीत को सीमित रखें तथा बच्चों को इसके उपयोग से बचने के लिए प्रोत्साहित करें। विशेषज्ञों का कहना है कि मोबाइल फोन के उपयोग के कारण सिरदर्द, अनिद्रा तथा याद्दाश्त कम होने का खतरा होता है। आज सबसे बड़ा खतरा यह भी है कि बहुत बड़ी संख्या में बच्चे मोबाइल का उपयोग कर रहे हैं। चूंकि बच्चों की खोपड़ी पतली, सिर छोटा और तंत्रिका तंत्र विकसित हो रहा होता है, इसलिए उन पर इसका प्रभाव बहुत अधिक होता है। (मीडिया केयर नेटवर्क)

असुरक्षित सैक्स है मानसिक बीमारियों का प्रमुख कारण

न्यूजीलैंड के शोधकर्ताओं ने 21 वर्ष आयु के करीब 1000 युवकों पर एक अध्ययन करने के बाद यह निष्कर्ष निकाला है कि जो युवा यौन रोगों से ग्रस्त रहते हैं तथा कम आयु में असुरक्षित सैक्स करते हैं, उनमें सिजोफ्रेनिया, डिप्रैशन तथा खान-पान संबंधी समस्याएं अधिक देखी गई हैं। अध्ययन के दौरान यह पाया गया कि युवकों में मादक द्रव्यों की लत और डिप्रैशन आम समस्याएं हैं, जिनका असुरक्षित सैक्स संबंधों से सीधा संबंध है। इस अध्ययन के निष्कर्षों में बताया गया है कि असुरक्षित सैक्स और मनोवैज्ञानिक रोगों के बीच सीधा संबंध है। (मीडिया केयर नेटवर्क)
प्रस्तुति: योगेश कुमार गोयल

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