इनकी … उनकी … सबकी दीवाली


दीवाली आ रही है, चारों ओर तैयारियां जोरों पर चल रही हैं, जैसे कॉमनवैल्थ गेम्स के आयोजन की तैयारियां। घर-आंगन, इमारतें सब नए-नए रंगों में रंगे जा रहे हैं। शारदीय माहौल में धूप भी कुनकुनी हो चली है। दीवाली आने पर सबकी खुशी अलग ही नजर आती है। इस बार हमने सोचा कि इस महंगाई के माहौल में दीवाली के प्रति लोगों का नजरिया जान लिया जाए। कारण कि अन्य त्योहार तो फीके हो चले हैं।

सबसे पहले हम रमुआ मजदूर से मिले। वह कहता है, ”इस बार तो बीते सालों की अपेक्षा जानदार दीवाली होगी अपनी!”

”ऐसा कौन-सा गड़ा धन मिल गया तुझे, जो तेरा दीवाला निकालने वाली दीवाली इस बार अपार खुशी प्रदान कर रही है, ‘लक्ष्मी जी सदा सहाय करें’ की तर्ज पर?”

हमने कहा तो वह हमारी बातों पर खिलखिलाकर हंस पड़ा, ”भैया, ग्राम पंचायत में अपना भी रोजगार गारंटी योजना के तहत जॉब कार्ड बन गया है पर अपन वहां की मजदूरी में नहीं जाते।”

”काहे?”

”अपन सेठ के यहां अनाज तोलकर ज्यादा कमा लेते हैं।”

”फिर मुझे जॉब कार्ड की बात क्यों बता रहा था?”

”भैया, हमने एक चालाकी अपना ली है। वह यह कि हमारे कार्ड में सरपंच सचिव से सांठगांठ के तहत हमारी मजदूरी भर देते हैं। बदले में वह 60 परसेंट रकम अपने पास रख लेते हैं। अब आप ही बताओ, हमारे तो दोनों हाथों में लड्डू हैं न! फिर अबकी दीवाली काहे न दीवाली जैसी लगेगी?”

इधर सेठ रायचंद जी की राय है, ”देखो भाई, अपन ठहरे व्यापारी। लाभ का धंधा तो करेंगे ही। इसलिए इस बार हमने गरीब आदिवासी किसानों को पूरी बरसात नमक व मार्किटिंग सोसायटी से जुगाड़ किया हुआ नंबर दो का चावल पूरा किया। अब उनकी फसल आई तो कर्ज चुकाने के एवज में उनकी कीमती फसल काटकर अपने गोदाम में ले आए। अब सोच रहे हैं कि इस फसल को बेचकर अपनी कॉलेज जाती बिटिया के लिए धनतेरस के दिन कार खरीद दें।”

क्षेत्र के अधिकांश किसान खुश हैं। उन्होंने इस बार अच्छी बरसात होने से अच्छी फसल काटी है। साथ ही एक-दो बार आई बाढ़ से हुई न के बराबर क्षति का पटवारी से सांठगांठ कर सरकार से मुआवजा भी घोषित करवा लिया है। पटवारी जी भी खुश हैं। अपनी अनाज की कोठी की तरह किसानों ने इस दीवाली में उनकी जेब की कोठी भी भर दी है।

ठेकेदार रामदीन कहते हैं, ”भैया दीवाली आई तो ‘लक्ष्मी कृपा’ बनकर आई। हमारा मतलब आखिरी बरसात पुलिया में लगाए ‘चूना-रेत’ को बहाकर ले गई। इस तरह अपनी अमावसी करतूत दीवाली जैसी जगमग ईमानदारी में बदल गई। अफसर तो पहले से ही पटे-पटाये हैं। नोटों की गड्डी देखकर वे हमारे पक्ष में बीन बजाने लगते हैं।”

बाढ़ पीडि़त जनता भले ही दर्द व भूख से कराह रही है मगर नेता, अफसर, कर्मचारी बाढ़ राहत पैकेज से कमीशन काटकर दीवाली की तैयारी में जुटे हैं। वे यह गुणा-भाग लगा रहे हैं कि ‘ब्लैक मनी’ को इस दीवाली में ‘व्हाइट मनी’ कैसे बनाया जाए।

इधर हमारे कुछ लेखक मित्र पिछले 10 वर्षों में ‘सखेद वापिस’ दीपावली से जुड़ी रचनाओं में से चुनिंदा रचना खंगालने में लगे हैं। कुछ तो सारी रचनाओंं का मुख्य अंश जोड़कर एक-दो रचना बनाने में जुटे हैं ताकि अब की बार सम्पादक जी की इनायत उन पर हो जाए और ‘दीप अंक’ में उनकी रचना ‘दीप’ की भांति टिमटिमाये।

हमने अरमान जी से पूछा, ”आप ‘दीप अंक’ पर क्या लिख रहे हैं?”

”क्या लिखेंगे? पांच साल पहले लौटकर आई रचनाओं को पुन: भेज रहे हैं।” उन्होंंने कहा।

”पुराना मैटर क्यों?”

”तिजोरी में बंद सोने की तरह बेकार पड़ी रचनाएं कब काम आएंगी?”

”अगर पुन: वापस हो गई तो?”

”अब लौटकर नहीं आएंगी।” उन्होंने पूरे आत्मविश्वास से उत्तर दिया।

”क्यों? वापसी के लिए लिफाफा नहीं भेज रहे क्या?” हमने प्रश्न का आतिशबाजी रॉकेट उनकी ओर छोड़ा तो वे थोड़ा फुलझड़ी की तरह चिढ़कर बोले, ”ऐसा नहीं यार, अब अपन नामी लेखक हो गए हैं। जो भी लिखते हैं, सब छपता है।”

”लेकिन महाशय! ‘स्तर’ भी तो कोई चीज है। बिना उच्च स्तर वाली रचनाएं भला छप सकती हैं?”

वे हमारे जवाब से तुनक सा गए, ”देखिये, अपना काम है रचनाएं भेजना, छापना न छापना उनकी मर्जी।”

हमने उनकी खीझ देखकर बातों का रुख बदल दिया।

अबकी बार हम भी अपनी पत्नी के मुख से दीवाली पर ‘टीचर बनाम फटीचर’ जैसा अपमानजनक शब्द सुनने से वंचित रहेंगे। इसका कारण यह है कि हम ‘गऊ’ कहलाने वाले मास्टरों ने छात्र-छात्राओं में बांटी जाने वाली साइकिलें, ड्रैस, मिड-डे मील व स्टेशनरी खरीदी से ‘कमीशन’ निकालना सीख लिया है। अभी तक हमारी जिंदगी ईमानदारी की उबड़-खाबड़ पगडंडी पर ही दौड़ रही थी मगर अब भ्रष्ट कारनामों की काली पक्की सड़कों पर दौडऩा शुरू कर चुकी है। इस बात का अंदाजा आप दीवाली पर किए जाने वाले खर्च से लगा सकते हैं।

अंत में, दीवाली की शुभकामनायें देते हुए हम तो यही कहेंगे कि अगर आप भी पूरे जश्न से दीवाली मनाना चाहते हैं तो हमारे अपनाये तौर-तरीके पर आ जाइए, फिर देखिये, हर काली रात भी लगेगी दीवाली।
-- सुनील कुमार ‘सजल’

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