कितनी सार्थक होगी पाकिस्तान से बातचीत की प्रक्रिया?

खरी खोटी
कितनी सार्थक होगी पाकिस्तान से बातचीत की प्रक्रिया?
. योगेश कुमार गोयल

नवम्बर 2008 के मुम्बई हमले के बाद भारत-पाक के रिश्तों में जो खटास उत्पन्न हुआ था, उस कारण दोनों देशों के बीच वार्ताओं का सिलसिला पूरी तरह से बंद था और भारत द्वारा बार-बार स्पष्ट रूप से यही कहा गया था कि जब तक पाकिस्तान मुम्बई हमलों के जिम्मेदार पाकिस्तान में बैठे आतंकवादी गिरोहों के नेताओं को सजा नहीं देता तथा अपने वहां फैले भारत विरोधी आतंकी नेटवर्क को नेस्तनाबूद करने के लिए ठोस कार्रवाई नहीं करता, तब तक दोनों देशों के बीच कोई बातचीत शुरू नहीं हो सकती लेकिन अति उत्साह से सराबोर भारत सरकार द्वारा अपने ही बयानों से पलटी मारते हुए पाकिस्तान की निरन्तर वादाखिलाफी के बावजूद पिछले दिनों जिस प्रकार पाकिस्तान के साथ बातचीत की पेशकश की गई, उससे हर किसी का हतप्रभ होना स्वाभाविक ही है।
यह बड़े हैरत की ही बात है कि जहां 26/11 के मुम्बई हमले के बाद भारत सरकार अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान की पोल खोलने और उसे पूरी दुनिया में अलग-थलग करने में सफल हुई थी, वहीं उसने अब न केवल अपनी उसी रणनीति को पूरी तरह पलट दिया है बल्कि एक प्रकार से पाकिस्तान के समक्ष घुटने भी टेक दिए हैं। भारत सरकार मुम्बई हमले के बाद बार-बार कहती रही कि पाकिस्तान के साथ कोई बातचीत तभी शुरू हो सकती है, जब वो मुम्बई हमले के षड्यंत्रकारियों के खिलाफ कार्रवाई करते हुए उन्हें कानून के हवाले करे लेकिन पाकिस्तान का रूख हर बार टालमटोल वाला रहा। पाक प्रधानमंत्री युसूफ रजा गिलानी ने तो साफ शब्दों में कहा कि पाकिस्तान इस सिलसिले में कुछ नहीं कर सकता क्योंकि वह खुद आतंकवाद का शिकार है और मुम्बई जैसे हमले उनके यहां हर महीने होते रहते हैं लेकिन अपनी ठोस रणनीति के चलते भारत सरकार पाकिस्तान को आतंकवाद के मुद्दे पर अलग-थलग करने में काफी हद तक सफल हो गई थी और उसने पाकिस्तान के साथ बातचीत की प्रक्रिया शुरू करने के लिए शर्त रखी थी कि पहले पाकिस्तान पिछले कुछ वर्षों में विभिन्न अवसरों पर दिए गए अपने उस वायदे को निभाए कि उसकी सीमाओं का इस्तेमाल दूसरे देशों में आतंकवाद फैलाने के लिए नहीं होगा।
भुला दिया मुम्बई हमले का दर्द
एकाएक ऐसा क्या होगा कि मनमोहन सरकार अपनी इन शर्तों को दरकिनार करते हुए मुम्बई हमले के दर्द को भूलकर पाकिस्तान के साथ बातचीत की प्रक्रिया शुरू करने के लिए बेचैन हो उठी? बावजूद इसके कि खुद अमेरिका ने, जिसके दबाव में झुककर सरकार द्वारा बातचीत की प्रक्रिया शुरू करने की पहल की गई बताई जाती है, भारत को पाकिस्तान द्वारा उसकी जमीन का प्रयोग भारत में आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए किए जाने के सबूत उपलब्ध कराए थे और खुद अमेरिकी रक्षामंत्री राॅबर्ट्स गेट्स ने भारत की सरजमीं पर खड़े होकर पाकिस्तान को चेतावनी भरे लहजे में कहा था कि पाकिस्तान भारत के सब्र का और इम्तिहान न ले अन्यथा भारत युद्ध के रास्ते पर जा सकता है। आज पाकिस्तान के समक्ष बातचीत की पेशकश करके जहां भारत सरकार पाकिस्तान के समक्ष एक प्रकार से आत्मसमर्पण की मुद्रा में नजर आ रही है, वहीं उल्टे पाकिस्तान भारत को अलग-थलग करने की कोशिशों में सफल होता दिख रहा है।
भारत सरकार को देश की जनता को यह जवाब देना होगा कि जिस पाकिस्तान के साथ बातचीत की प्रक्रिया शुरू करने को वह इतनी उतावली है, क्या उस धूर्त पाकिस्तान ने 26/11 के हमलावरों को दण्डित किया? क्या उसने गुलाम कश्मीर में आतंकी शिविरों को नष्ट किया? शर्म-अल-शेख में प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने अपनी किस नीति के तहत पाकिस्तान से वार्ता के अपने घोषित एजेंडे को आगे बढ़ाया? उल्लेखनीय है कि जुलाई 2009 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मिस्र के शर्म-अल-शेख शहर में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री युसूफ रजा गिलानी से मुलाकात कर एक संयुक्त बयान जारी किया था, जिसमें भारत की ओर से न केवल ‘समग्र बातचीत’ को आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई की शर्त से मुक्त कर दिया गया था बल्कि उस बयान में यह भी शामिल किया गया था कि ब्लूचिस्तान में हो रही हिंसा पर भारत पाकिस्तान की चिंताओं को महसूस करता है। इस संयुक्त बयान को भारत की एक भारी कूटनीतिक भूल माना गया था। वैसे भी तब से लेकर अब तक पाकिस्तान के व्यवहार से दोनों देशों के रिश्तों की मजबूती को लेकर कोई सकारात्मक संकेत नहीं मिले।
सबसे अहम सवाल, जिसका जवाब मनमोहन सरकार को देना होगा, वो है कि एक ओर सरकार हथियार न छोड़ने वाले नक्सलियों से बात करने से साफ इन्कार कर रही है, फिर उस पाकिस्तान से किस आधार पर सचिव स्तर की बातचीत शुरू करने की तैयारी कर रही है, जिसका प्रधानमंत्री ही कश्मीर में जेहाद छेड़ने की घोषणा सार्वजनिक रूप से कर रहा हो? जिस दिन विदेश मंत्रालय में पाकिस्तान को सचिव स्तर की बातचीत का न्यौता दिया गया, उसके अगले ही दिन पाक प्रधानमंत्री गिलानी जमात-उल-दावा के सरगना हाफिज मुहम्मद सईद के नेतृत्व में गुलाम कश्मीर में जेहादियों के एक बड़े सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए भारत से वार्ता में कश्मीर को भी शामिल करने और जम्मू कश्मीर में ‘आजादी की लड़ाई’ जारी रखने का ऐलान कर भारत के जख्मों पर नमक छिड़क रहे थे। सवाल यह है कि जब तक कश्मीर में पाक प्रायोजित आतंकवाद और छद्म युद्ध जारी है, क्या पाकिस्तान से कश्मीर मसले पर किसी भी प्रकार की वार्ता उचित होगी?
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने हाल ही में खुद माना है कि जम्मू कश्मीर में आतंकवादी घटनाओं में तो कमी आई है लेकिन वहां घुसपैठ की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है। ऐसे में सरकार को इस सवाल का जवाब भी देना होगा कि वो क्या कर रही है? न वो सीमा पार से पाकिस्तान द्वारा जम्मू कश्मीर में कराई जा रही घुसपैठ व आतंकवादी घटनाओं को रोक पा रही है और न ही भारत विरोधी जेहादी ढ़ांचे को तोड़े बिना पाकिस्तान से कोई बातचीत न करने के अपने स्टैंड पर कायम रह पा रही है। आखिर पाकिस्तान के साथ फिर से बातचीत की पेशकश कर मनमोहन सरकार साबित क्या करना चाहती है? वास्तविकता यही है कि कूटनीति के मोर्चे पर पाकिस्तान हमेशा भारत को मात देता आया है और वही इस बार भी हुआ है।
भारत की हास्यास्पद स्थिति
पाकिस्तान ने भारत का सचिव स्तर की बातचीत का प्रस्ताव तो स्वीकार कर लिया लेकिन धूर्तता का परिचय देते हुए इस पेशकश पर ‘समग्र वार्ता’ (कम्पोजिट डायलाॅग) की शर्त लगा दी और उसके तुरंत बाद पाकितान के विदेश मंत्री शाह मुहम्मद कुरैशी सहित पाक प्रधानमंत्री भी भारत का मजाक उड़ाने में जुट गए, जिससे अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत की स्थिति बहुत ही हास्यास्पद हो गई है। पाकिस्तान यह कहकर भारत की फजीहत करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा कि उसने नई दिल्ली के समक्ष घुटने नहीं टेके हैं बल्कि भारत ने घुटने टेके हैं और उसे वार्ता के लिए मजबूर किया है।
भारत का मजाक उड़ाते हुए पाक विदेश मंत्री कुरैशी का कहना है कि समग्र वार्ता प्रक्रिया को तोड़ने वाला और पाकिस्तान के साथ संबंध खत्म करने की बात करने वाला भारत खुद हमारे पास आया और बातचीत करने को कहा। 26 नवम्बर की घटना के बाद जो भारत हम पर हमला करने की बात कर रहा था, एक साल बाद वह स्वयं वार्ता का प्रस्ताव लेकर आया है। आखिर भारत को झुकना पड़ा और अब उसकी अकड़ ढ़ीली हो गई है। कुरैशी का कहना है कि मुम्बई का मामला हो या कश्मीर का, पाकिस्तान लगातार अपने रूख पर कायम रहा लेकिन भारत कभी किसी रूख पर स्थिर नहीं रह पाता। भारत डर गया है और ऐसा पाकिस्तान की अपनी ताकत की वजह से हुआ है।
एक ओर पाक विदेश मंत्री ने भारत का खुलेआम मजाक उड़ाते हुए मनमोहन सरकार की स्थिति ऐसी हास्यास्पद बना दी है कि न तो वो अब वार्ता की अपनी पेशकश से पीछे हट सकती है और न ही पाकिस्तान की ही भाषा में उसे कोई जवाब देते बन रहा है, वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान के गृहमंत्री ने आईपीएल में पाकिस्तान के खिलाड़ियों के न चुने जाने पर भारत को इसका सबक सिखाये जाने की धमकी भी दे डाली है।
क्यों करें पाकिस्तान से बातचीत?
पाकिस्तान के साथ वार्ता शुरू करने के हिमायती हमारे देश के ही कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी यह बात उठाते नहीं थकते कि पाकिस्तान आज खुद आतंकवाद से पीड़ित है, ऐसे में भारत को उसकी मदद करनी चाहिए। ऐसे लोगों से यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि पाकिस्तान अपनी भारत विरोधी गतिविधियों और आतंकी संगठनों पर लगाम कसने की कोई सार्थक पहल क्यों नहीं करता? अगर पाकिस्तान स्वयं आतंकवादी हादसों से इतना घबराया है तो क्यों नहीं वह अपने परमाणु हथियारों के जखीरे को राष्ट्रसंघ के हवाले कर देता, जिसका दुरूपयोग उसके पाले-पासे आतंकी संगठन कभी भी कर सकते हैं और पूरी दुनिया में भारी तबाही मचा सकते हैं?
माना कि पाकिस्तान खुद अपनी ही लगाई आतंकवाद की ज्वाला में झुलसने लगा है लेकिन इसके बावजूद अगर वो आज भी यह मानने को तैयार नहीं कि भारत में सक्रिय आतंकी संगठन उसकी धरती से ही अपनी तमाम गतिविधियां चला रहे हैं तो इसका क्या अर्थ निकाला जाए? वैसे भी भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में पनपते आतंकवाद की एक-दूसरे से तुलना हो ही नहीं सकती। भारत में सक्रिय आतंकवाद सीमा पार से चलाया जा रहा ‘आतंकी मिशन’ है, जो पाकिस्तान की ही देन है, जिसका मकसद इस देश को विखंडित करना, भारत के अटूट हिस्से जम्मू कश्मीर को इस देश से अलग करना और इस देश को एक ‘इस्लामिक स्टेट’ में तब्दील करना है जबकि पाकिस्तान में पनपता आतंकवाद न तो सीमा पार से चलाया जा रहा कोई आतंकी अभियान है और न ही यह पाकिस्तान को विखंडित करने के लिए चल रहा है बल्कि यह उस सत्ता केन्द्र के प्रति आतंकवादी गुटों की नाराजगी का ही नतीजा है, जिनका मानना है कि सरकार कठपुतली की भांति अमेरिका के इशारों पर नाचते हुए पाकिस्तान के हितों का सौदा कर रही है।
किससे करें बातचीत?
पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकवाद की विभीषिका की जो भारी कीमत हम पिछले तीन दशकों से लगातार चुका रहे हैं, क्या वह किसी से छिपा है? क्या तमाम सबूतों के बावजूद आज तक पाकिस्तान ने मुम्बई हमले के दोषियों को सजा दिलाने के लिए रत्ती भर भी पहल की? क्या आतंकवाद और सीमापार से बढ़ती घुसपैठ को लेकर उसने भारत की चिंताओं को दूर करने के लिए कोई कदम उठाया? फिर भला ऐसे धूर्त पड़ोसी से दोस्ती या बातचीत का अर्थ ही क्या रह जाता है? वैसे भी पाकिस्तान में बातचीत की भी किससे जाए? वहां सत्ता का कोई एक केन्द्र तो है नहीं। सत्ता वहां तीन केन्द्रों में विभाजित है, जिनमें सबसे ताकतवर है वहां की सेना और दूसरा केन्द्र है खुफिया एजेंसी आईएसआई तथा आतंकी, जो निरंकुश हैं जबकि तीसरा केन्द्र है निर्वाचित सरकार, जो तभी तक टिकी रहती है, जब तक वह हर सही-गलत हरकत के लिए इन दोनों केन्द्रों की पीठ थपथपाती है। क्या ऐसी निर्वाचित सरकार से किसी भी वार्ता के सार्थक परिणाम निकलने की जरा भी उम्मीद की जा सकती है।
दोनों देशों के बीच चली शांति वार्ताओं का अब तक का यही हश्र रहा है कि भारत कोई एक आरोप सबूतों के साथ उठाता है तो पाकिस्तान बदले में भारत पर ही ढ़ेर सारे आरोप मढ़ने में देर नहीं लगाता। अगर भारत पाकिस्तान को हमारे यहां उसी की जमीन से फैलाये जा रहे आतंकवाद के पुख्ता सबूत सौंपता है तो पाकिस्तान उस पर नियंत्रण की कोई पहल करने के बजाय भारत पर ही आरोपों की झड़ी लगाकर दुनिया को यह दिखाने की कोशिशों में जुट जाता है कि आरोप लगाने वाला भारत स्वयं कितना दूध का धुला है।
बेढ़ंगी और पिलपिली नीतियां
हमारी विदेश नीति कितनी हास्यास्पद रही है, इसका आभास बार-बार होता रहा है। समझौता ट्रेन हादसे में पाकिस्तानी हाथ होने के स्पष्ट संकेत मिले थे, उसके बावजूद प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह तब पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री शौकत अजीज को ही यह आश्वासन देते नजर आए थे कि इन घृणित गतिविधियों में शामिल लोगों को बख्शा नहीं जाएगा। क्या प्रधानमंत्री नहीं जानते थे कि भारत उसी पाकिस्तान की लगाई आतंकवाद की ज्वाला में बुरी तरह झुलस रहा है, जिसे वह अपने इस प्रकार के आश्वासनों के जरिये आतंकवादी घटनाओं को लेकर हमारे ही ऊपर उंगली उठाने का मौका दे रहे थे। हुआ भी वही, पाकिस्तान ने भारत के उस आश्वासन के तुरंत बाद हम पर ही आतंकवादी गतिविधियां चलाने का आरोप मढ़ दिया था। इससे ज्यादा शर्मनाक स्थिति और क्या होगी कि मनमोहन सरकार के कुछ मंत्री भी आतंकवाद से निपटने की अपनी ही सरकार की नीतियों पर संदेह जाहिर करते रहे हैं।
आखिर क्या वजह है कि बिना हालात सुधारे पाकिस्तान के साथ आपसी संबंध सुधारने की सबसे ज्यादा बेचैनी भारत को ही है जबकि यह जगजाहिर है कि पाकिस्तान अपनी हरकतों से बाज आने वाला नहीं? यह हमारी सरकारों की बेढ़ंगी नीतियों का ही परिणाम है कि हमारी छवि एक ऐसे बेहद कमजोर और नरम राष्ट्र की बन गई है, जिसे छोटे-छोटे देश भी घुड़कने से नहीं घबराते। आए दिन आतंकी हादसों को झेलने के बाद भी हममें इतना माद्दा नहीं है कि अपनी ही जमीन पर दहशत फैला रहे नापाक तत्वों का सिर कुचल सकें बल्कि ऐसे हर हादसे के बाद हम कातर दृष्टि से अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी इत्यादि की ओर ताकने लगते हैं और उनसे फरियाद करते हैं कि वो इन आतंकियों के विरूद्ध कदम उठाएं? कितनी शर्मनाक स्थिति है!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं तीन फीचर एजेंसियों के समूह ‘मीडिया केयर ग्रुप’ के प्रधान सम्पादक हैं)


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