बच्चों को संस्कारहीन बनाते अभद्र नामों वाले पाउच


एक ओर जहां हम अपने बच्चों को महंगे इंग्लिश मीडियम स्कूलों में शिक्षा दिलाकर उन्हें सभ्य बनाना चाहते हैं और भविष्य में उन्हें ऊंचे-ऊंचे पदों पर आसीन देखना चाहते हैं, वहीं हमारे इन्हीं नौनिहालों के कोमल मन को न केवल हमारी टीवी संस्कृति दूषित कर रही है बल्कि सूबे के अनेक इलाकों में अभद्र नामों से बिक रहे मीठी गोलियों के एक-एक रुपये के छोटे पाउच भी उन्हें संस्कारहीन बनाने में अहम भूमिका निभाते हुए भारतीय संस्कृति का भी सरेआम मजाक उड़ा रहे हैं।

बच्चों के लिए मात्र एक रुपये कीमत में उपलब्ध कराए गए तरह-तरह के पाउचों को ऐसे ऊटपटांग नामों से बाजार में उतारा गया है, जिनके नाम आम भाषा में गाली के समान लगते हैं। ऐसे ही अभद्र व असभ्य नामों वाले पाउच राजस्थान के विभिन्न इलाकों में दिल्ली से बहुतायत में सप्लाई हो रहे हैं।

ऐसा ही एक पाउच, जिस पर नाम अंकित था ‘ओए भूतनी के’ जब हमारी नजरों के सामने आया तो हम चौंके बिना नहीं रह सके। यह तो सिर्फ एक बानगी थी, ऐसे ही न जाने कितने ही असभ्य नामों वाले पाउचों से बाजार भरा पड़ा है, जो बालमन को दूषित करते हुए हमारे संस्कारों से भी खिलवाड़ कर रहे हैं। कल्पना करें, अगर कोई किसी अन्य शख्स को इसी नाम से पुकारे तो शायद कोई इसे सहन नहीं करेगा क्योंकि आमतौर पर ऐसे शब्दों को गाली के समान समझा जाता है लेकिन हद तो यह है कि छोटे-छोटे बच्चे भी अब दुकानदार से ऐसे ही नाम बोलकर पाउच मांगते हैं और दुकानदार चंद रुपये कमाने के लालच में इस भाषा की ओर ध्यान न देकर (गालीनुमा शब्दों को नजरअंदाज करते हुए) उन्हें एक रुपये के बदले चुपचाप यह पाउच थमा देते हैं।

हालांकि कुछ दुकानदारों का कहना है कि जब छोटे-छोटे बच्चे उनसे अभद्र और गालीनुमा शब्दों वाले ये पाउच यही शब्द बोलकर मांगते हैं तो उन्हें खुद को शर्म तो जरूर महसूस होती है किन्तु ऐसे पाउच बेचना उनकी मजबूरी है क्योंकि बच्चे ऐसे पाउचों के साथ-साथ उनकी दुकान से कुछ न कुछ अन्य सामान भी खरीदते हैं और अगर वो ये पाउच नहीं बेचते तो बच्चे दूसरी दुकानों से यही पाउच खरीद लेते हैं और वहीं से अन्य सामान भी खरीदते हैं, जिससे उनकी दुकानदारी प्रभावित होती है। एक पैकेट में इस तरह के करीब 40 पाउच होते हैं और दुकानदार को पूरे पैकेट पर अधिकतम 10 रुपये की ही बचत होती है लेकिन एक-दूसरे की देखा-देखी इस तरह के पाउच बेचना उनकी मजबूरी बन गई है।

सवाल यह है कि बच्चे, जिन्हें इन पाउचों पर अंकित अभद्र और असम्मानजनक शब्दों के अर्थ का ज्ञान तक नहीं होता, जब आपस में एक-दूसरे को ही इन पाउचों पर लिखे शब्दों का उच्चारण करके बुलाते हैं तो इसका हमारी गौरवशाली संस्कृति के साथ-साथ बच्चों की मानसिकता पर भी किस तरह का प्रभाव पड़ता है, यह विस्तार से बताने की आवश्यकता नहीं है। छोटे बच्चे, जिन्हें संस्कारों के नाम पर अभी बहुत कुछ सीखना बाकी है, इस तरह के पाउच खरीदकर जब दुकानदार या अपने साथियों अथवा अभिभावकों को ही इन नामों से पुकारने लगते हैं तो उनके भविष्य के संस्कार कैसे होंगे, इसका अनुमान लगाना भी कठिन नहीं है। इसलिए जरूरत इस बात की है कि अभिभावक तो संस्कृति को बिगाड़ने और उनके बच्चों की मानसिकता को दूषित करने के इस कुत्सित षड्यंत्र के प्रति जागरूक हों ही, प्रशासन भी इस दिशा में समय रहते चेते और ऐसे निर्माताओं पर सख्ती से अंकुश लगाए।

Comments

पाउच तो अभिशाप बनता जा रही
...लेकिन छोटों बच्चों को लिए गोलियां, टोफियाँ आदि न जाने क्या-क्या जब बच्चे टीवी या दुकान पर देख लेते हैं फिर मत पूछो.... स्वयं खरीद कर खा ले तो आफत माँ बाप की ...नाम भी ऐसे उटपटांग की समझ से परे है कि क्या किया जाय.. बहुत माथा पच्ची करनी पड़ती है ...
सार्थक आलेख काश यह बात हर कोई समझ लेता और इसके लिए समय रहते जाग जाते तो कितना अच्छा होता
पाउच तो अभिशाप बनता जा रही
...लेकिन छोटों बच्चों को लिए गोलियां, टोफियाँ आदि न जाने क्या-क्या जब बच्चे टीवी या दुकान पर देख लेते हैं फिर मत पूछो.... स्वयं खरीद कर खा ले तो आफत माँ बाप की ...नाम भी ऐसे उटपटांग की समझ से परे है कि क्या किया जाय.. बहुत माथा पच्ची करनी पड़ती है ...
सार्थक आलेख काश यह बात हर कोई समझ लेता और इसके लिए समय रहते जाग जाते तो कितना अच्छा होता

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