व्यंग्य: बिजली का बिल
-- सुनील कुमार ‘सजल’ (मीडिया केयर नेटवर्क)
गर्मी का मौसम है। जैसे अल्हड़ युवती की जवानी गर्म होती है, वैसे ही बैसाख के दिन पूरे शबाब में गनगना रहे हैं और ऊपर से बिजली विभाग वालों की कुख्यात कृपा से बिजली कटौती! हाय राम मारकर ही दम लेगी क्या! खैर! जब तक गर्मी में 14-14 घंटे की बिजली कटौती न हो तो काहे की गर्मी! कूलर, ए.सी. की ठंडी हवा या फ्रिज का ठंडा पानी पीकर क्या कोई गर्मी का आनंद उठा सकता है? जब तक गुनगुने जल से प्यास न बुझायें, बदन पर लू के थपेड़े न पड़ें तो काहे की गर्मी और काहे का गर्मी का मजा।
वैसे हमने मनोविज्ञान का कचरा ज्ञान प्राप्त कर घर में एक रेफ्रिजरेटर ला रखा है ताकि देखकर दिमाग को ठंडे का असर पड़े और मोहल्ले के लोग देखकर यह न कह सकें, ‘‘हाय इतना सब कुछ होते हुए भी घर में एक फ्रिज भी नहीं है, मिट्टी के घड़े का पानी पीते हो। ऐसी कंजूसी हमने देखी नहीं कहीं।’’
हमने एक चालाकी और अपना रखी है कि कोल्ड ड्रिंक की जगह घड़े के पानी में नींबू रस और शक्कर घोलकर मेहमानों के घर में प्रवेश के साथ कबाड़ी वालों से खरीदी गई ब्रांडेड कम्पनी की बोतलों में भरकर चुपचाप फ्रिज में रख देते हैं ताकि फ्रिज से निकालकर उन्हें पिला सकें। इसी बीच उनकी नजर अगर फ्रिज में पड़ भी जाए तो वे यह न कह सकें कि घर में फ्रिज तो है मगर दो-चार बोतलें कोल्ड ड्रिंक की नहीं हैं। खैर छोड़िये, इस भीषण महंगाई तले दबे कुचले तन की पसली में उठे दर्द को हम जानते हैं।
उस दिन बनवारी लाल जी घर पहुंचे। पसीने से ऐसे लथपथ थे, जैसे किसी फव्वारे के आसपास घूम-फिरकर आए हैं। अपने अंगोछे से मुंह पोंछते हुए बोले, ‘‘ऐसी गर्मी पिछले 10 बरस में नहीं देखी।’’
‘‘हां, आप ठीक कहते हैं, रिकॉर्ड टूट रहा है इस बरस तो ...!’’
अभी बात चल ही रही थी कि इतने में मिंकू बिटिया जल से भरा गिलास लेकर उनके सामने उपस्थित हुई। उन्होंने दो-चार घूंट पानी पीया और बोले, ‘‘लगता है, घड़े का पानी है।’’
‘‘घड़े का नहीं होगा। घर में फ्रिज है तो घड़े का पानी क्यों पिलायेंगे मेरे दोस्त।’’
तभी हमारी बात काटती हुई मिंकू बोल पड़ी, ‘‘हां अंकल जी, घड़े का पानी है। बात यह है कि बिजली का बिल ज्यादा आता है न, इसलिए पापा जी फ्रिज और टीवी ज्यादा नहीं चलाने देते।’’ बिटिया ने जैसे हमारी पोल खोल दी। हम शर्म से दर्जन भर घड़े का पानी उड़ेले इंसान की तरह होकर रह गए।
वे बोले, ‘‘काहे इतना कंजूस बनते हो यार। कम से कम पानी तो फ्रिज का पिया करो।’’
‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है। हमने बहाना ढूंढ़ते हुए कहा, ‘‘पूरे घर के सदस्य चार-पांच दिनों से सर्दी-जुकाम से पीड़ित रहे हैं, इसलिए फ्रिज बंद करके रखना पड़ा है। बच्चे तो कुछ भी कहते रहते हैं।’’
‘‘न बाबा न! बच्चे झूठ न बोलें।’’ उन्होंने सिर मटकाते हुए कहा।
हम थोड़ी देर चुप रहे। फिर उन्हें धीरे से गर्म हवा के बीच शीतल पुरवाई की तरह फुसलाते हुए चर्चा के विषय को बदल दिया।
एक दिन पत्नी हमें धमकाते हुए बोली, ‘‘देखो जी, पाकिस्तान के तानाशाहों की तरह तानाशाही प्रवृत्ति अब इस घर में नहीं चलेगी। हम सब ऊब चुके हैं। अगर आप अभी भारतीय राष्ट्रपति की तरह ‘रबर स्टाम्प’ नहीं बनते तो मैं बच्चों के साथ सैनिकों की तरह विद्रोह कर मायके चली जाऊंगी।’’
‘‘क्या हुआ? क्यों गर्म दल के नेता की तरह गर्मागर्म बातें कर रही हो?’’ हमने उनके आक्रोश को जानने का प्रयास किया।
‘‘तुम्हारी बिजली-बचत की कंजूसी ने हम सबको इंसान से भुट्टे का भुरता बना दिया है।’’ वे संसद में विपक्षी नेता की भांति हमारी कमजोरियों पर उंगलियां उठाते हुए बोली।
‘‘मैं क्या कर सकता हूं?’’ हमने भी सत्तापक्ष के नेता की भांति पूरे गर्व से जवाब दिया।
‘‘तुम कुछ नहीं कर सकते तो हम करेंगे। आज और अभी से पंखे, कूलर, फ्रिज यानी सब शीत प्रदायक यंत्र अपनी पूरी गति से घूमेंगे। अगर आपने रोकने का प्रयास किया तो हमारे तेवर भी जेठ के तपते सूरज से कम नहीं होंगे।’’ पत्नी की जुबान पर महंगाई भत्ते के लिए अड़े कर्मचारी संघों की भांति आन्दोलन झलक रहा था।
पूरे सदस्य एक तरफ और हम वीराने में खड़े अकेले पेड़ की तरह हवा के थपेड़ों से कब तक जूझ सकते थे। अंततः संघर्ष के इस दौर में अपने सारे गुण-दोष सूखते पत्तों की तरह झड़ा दिए।
घर में बिजली मनमाने ढ़ंग से खर्च की जा रही थी। मीटर का चक्र ऐसे घूम रहा था जैसे नॉन स्टॉप ट्रेन का पहिया। पर बिजली के खर्च को देखकर हमारा जिया ऐसे जल रहा था मानो बिजली के शॉर्ट सर्किट से टायर फैक्टरी में लगी आग। और इस वक्त आग बुझाने के लिए अग्नि शामक दल न हो।
महीना गुजरा। बिजली का बिल आया पूरे दो हजार रुपये। एक पल बिल देखकर हमें यूं लगा मानो धारा प्रवाहित बिजली का नंगा तार हमने अपने हाथों से पकड़ लिया है। पूरा बदन झनझना रहा था और हम फड़फड़ा रहे थे। हम धम्म से कुर्सी पर बैठ गए। थोड़ी देर तक गर्मी की भरी दोपहरी में गांव की गलियों की भांति खामोश रहे।
कुछ देर बाद जब पत्नी की नजर हम पर पड़ी तो उन्होंने पूछा, ‘‘क्या हुआ? हवा में पीपल के पत्तों की तरह खड़खड़ाते रहने वाले आप इतने खामोश क्यों हो?’’ हमारी खामोशी पर उन्होंने जैसे व्यंग्य बाण छोड़े।
‘‘हमें खामोश ही रहने दो।’’ हमने कहा।
‘‘क्या हुआ? तबीयत खराब लग रही है या फिर लू लग गई। कहो तो आम का पना लेकर आती हूं या फिर डॉक्टर के पास फोन करूं!’’ इसी बीच उसने हमारे माथे व बदन पर हाथ रखकर देखा, ‘‘कुछ तो महसूस नहीं हो रहा है। न बदन इतना गर्म है कि बुखार हो और न ही इतना ठंडा कि ब्लडप्रैशर डाउन हुआ हो।’’
‘‘तुम ठीक कह रही हो। मुझे दोनों प्रकार की शिकायत नहीं है। यह देख रही हो बिजली का बिल। पूरे दो हजार रुपये! और यूं ही बिजली का बिल आता रहा तो मेरे घरेलू बजट का भट्ठा बैठ जाएगा।’’
‘‘क्या हुआ? गर्मी है ... बिजली खर्च हो रही है ... इतना बिल आ गया तो कौनसा पहाड़ टूटकर गिर पड़ा। अपने यहां तो कम बिल आया है। वो शर्मा जी के यहां पूरे पांच हजार का बिल आया है।’’
‘‘शर्मा जी और मुझमें अंतर है।’’
‘‘कुछ अंतर नहीं है। आप और वह दोनों एक पद एक वेतनमान वाले कर्मचारी हैं। फिर किस बात का अंतर।’’
‘‘मतलब तुम चाहती हो कि मैं शर्मा जैसे लोगों की बराबरी करूं।’’
‘‘क्यों नहीं। लोग अपने घर के बिजली का बिल देखकर मजाक उड़ाते हैं। कहते हैं कि आप लोग दीया-लालटेन जलाकर रहते हैं, जो इतना कम बिल आता है या फिर बिजली की चोरी करते हैं। कभी-कभी तो इतना कम बिल आता है कि मुझे बताते हुए शर्म आती है।’’ पत्नी ने अपने बड़प्पन को पड़ोसियों द्वारा पहुंचाई गई चोट को उघाड़कर दिखाते हुए कहा।
‘‘तुम शर्म करो और शर्माती रहो। घर में एक भी बिजली का उपकरण अनावश्यक रूप से नहीं चलेगा। मेरा मतलब जरूरत से भी कम चलेंगे।’’ हमने अधिकारी की तरह आदेश देकर कहा।
‘‘क्या कहा आपने? अगर ऐसे नहीं चलेंगे तो वैसे तुम्हारा बिजली का मीटर चलेगा मगर बिल कम नहीं आएगा। मोहल्ले में हमारी इमेज का सवाल है।’’ पत्नी ने पूरे जोश से आन्दोलनरत नारियों की शैली में कहा।
‘‘क्या कहा, बिजली के बिल के सहारे मोहल्ले में अपनी इमेज बनाओगी?’’ हमने कहा।
‘‘और नहीं तो क्या करूंगी? देखती हूं, बिजली का बिल कैसे कम आता है?’’ पत्नी ने कहा।
‘‘क्या करोगी?’’
‘‘सारे बिजली के उपकरण तो चलेंगे ही, साथ ही आपके तानाशाही गुरूर को तोड़ने के लिए एक-दो सौ वाट के बिजली के बल्ब भी बिजली रहने तक निरन्तर जलेंगे।’’ पत्नी ने कहा।
‘‘क्या कह रही हो?’’ हमने कहा।
‘‘गीता की कसम खाकर कहती हूं कि जो भी कह रही हूं, सच कह रही हूं, सच के सिवा कुछ भी नहीं कह रही हूं।’ पत्नी ने पूरे जोश से कहा।
बात बढ़ती रही, जैसे अदालत में सुनवाई चल रही हो। अंततः दोनों अपने-अपने में तन गए।
चार-पांच दिनों तक दोनों ओर से खामोशी छाई रही। किसी भी चीज की जरूरत के लिए बच्चों का सहारा ढूंढ़ते।
एक दिन हमने मौन तोड़ते हुए पत्नी से कहा, ‘‘एक कप चाय बनाओ।’’
‘‘इतनी गर्मी में चाय पीओगे।’’ पत्नी ने भी खामोशी तोड़ते हुए कहा।
‘‘मैं सब दिन एक-सा जीना चाहता हूं।’’ हमने कहा।
‘‘नहीं, हमारे रहते हुए आप गर्मी में ‘ठंडा’ ही लेंगे।’’ पत्नी ने कहा।
‘‘नहीं शूट नहीं होता।’’
‘‘होगा ... कैसे नहीं होगा!’’
पत्नी फ्रिज में ठंडा किया हुआ नींबू का शर्बत ले आई।
‘‘लो पीओ। इससे तन-मन और मस्तिष्क में ठंडक बनी रहेगी।’’
हमने पीया और गिलास को टेबल पर रखते हुए कहा, ‘‘किसी पहाड़ी स्थल पर जाने का मन हो रहा है।’’
‘‘अचानक कैसे हिम्मत कर बैठे?’’
‘‘बस यूं ही दफ्तर के सभी लोग जा रहे हैं ... मैं अकेला छूट रहा हूं।’’
‘‘छूट जाइए, क्या फर्क पड़ता है।’’
‘‘क्या ... तुम्हारी तरह मेरी भी इमेज का सवाल है।’’
‘‘अचानक यह बदलाव ... वह भी इमेज की चिन्ता के साथ! फिर बिजली का भारी भरकम बिल कौन जमा करेगा?’’ पत्नी ने कहा।
‘‘पर जितने दिन वहां रहेंगे, उतने दिन की बिजली भी तो बचेगी। हां और तुम वो गीता वाली कसम के सहारे बिजली का बिल बढ़ाने वाले उपाय चलता छोड़कर तो नहीं जाओगी न!’’
पत्नी हंसने लगी, ‘‘नहीं! गीता की कसम तो मैंने बस यूं ही खाई थी, जैसे न्यायालय में गवाह अथवा अपराधी अदालती कार्यवाही के दौरान खा लेते हैं।’’ (एम सी एन)
श्री सुनील कुमार ‘सजल’ से सम्पर्क करना चाहें तो उनसे उनके मोबाइल नं. 9424915776 पर सम्पर्क कर सकते हैं।
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