बेटा! संवाददाता बन जा

व्यंग्य

- सुनील कुमार ‘सजल’

(मीडिया केयर नेटवर्क)

मुझ जैसे व्यक्ति की इतनी विशाल औकात नहीं है कि मैं रोजाना आठ-दस अखबार खरीदकर पढ़ सकूं मगर अखबार पढ़ने के मामले में मैं उस दिन खुद को खुशनसीब समझने लगा, जब मेरे छोटे से कस्बे में एक के बाद एक कई छोटे-बड़े अखबारों के संवाददाता, सह-न्यूज एजेंट पैदा हो गए। भगवान उनका भला करे! भले ही इन बेचारों की 20-25 प्रतियां ही बिक पाती हैं मगर उनकी शान के गले में ‘संवाददाता’ होने का तमगा अवश्य लटका रहता है।
अभी तक दफ्तर में बामुश्किल एक-दो अखबार ही आया करते थे लेकिन दो-चार दिन से देख रहा हूं कि दफ्तर में रोज 8-10 अखबार आने शुरू हो गए हैं। जो भी चौड़ी छाती वाला साहसी संवाददाता बन जाता है, वह अपना एक अखबार दफ्तर में फैंक जाता है, भले ही दफ्तर से उसे परमिशन न मिली हो। वैसे भी आजकल छोटे शहरों में संवाददाता वही बन पाता है (ज्यादातर मामलों में), जो उनका अखबार बेच पाता है। फिर संवाददाता होने का रूतबा दिखाना है तो अखबार तो अपने क्षेत्र में चलाना ही पड़ेगा।
दफ्तर में बढ़ती अखबारों की संख्या को लेकर एक दिन मैंने साहब से पूछ ही लिया, ‘‘सर ...! हर महीने दो-चार अखबार बढ़ते जा रहे हैं, इस तरह इनकी संख्या सरकारी आंकड़ों की तरह अब दस को पार कर गई है। क्या आपने अनुमति दे रखी है?’’
वे बोले, ‘‘मैं क्यों इतने सारे अखबार खरीदने की अनुमति देने चला?’’
‘‘फिर अपने पास इनको भुगतान करने के लिए इतनी राशि कहां है? कहो तो सबको एक तरफ से बंद करा दूं।’’ मैंने साहब के सामने खुद के उनका वफादार होने का उदाहरण पेश करते हुए कहा।
‘‘अरे नहीं यार! ऐसा मत करो। अपन भी तो पक्के रंगे सियार हैं। साल में जहां लाखों रुपये की शासकीय राशि की ऐसी-तैसी कर अपनी जेबें भर लेते हैं, उसमें से अगर इन्हें साल में 8-10 हजार रुपया भुगतान करना भी पड़ा तो क्या फर्क पड़ता है। कम से कम इन लोगों का मुंह तो बंद रहेगा न! अपनी ‘गबन क्रिया’ में ज्यादा दखलंदाजी तो नहीं करेंगे। अगर की तो अपने से थोड़ा-बहुत पाकर संतुष्ट हो जाएंगे और अनावश्यक मैटर अपने अखबार में नहीं छापेंगे। इसलिए मिस्टर, हमेशा ध्यान रखो कि साधे रास्ते चलते नाग को कभी नहीं छेड़ना चाहिए। दुनिया का उसूल है कि खुद सुखद पल जीना है तो दूसरों को भी अपने हिस्से में से थोड़ा सुख दो। कुछ समझे!’’
साहब ने हमें लंबे-चौड़े वृत्तांत के साथ ‘शासकीय नौकरी का दर्शन’ समझा दिया।
‘‘पर इतने सारे अखबार पढ़ेगा कौन? अगर इन्हें पढ़ने बैठ गए तो सरकारी कामकाज कौन निपटाएगा?’’ हमने पूछा।
‘‘तुम लोगों से कौन कह रहा है कि इन अखबारों को पढ़कर अपने माथे का दर्द बढ़ाओ। अगर तुम मुझसे ज्यादा परेशानी महसूस कर रहे हो तो एक काम करो, इन सब अखबारों को बटोर-बटोरकर अपने घर ले जाकर कड़ाके की सर्दी के दिनों में जलाकर अपने हाथ-पांव सेंक लिया करो।’’
हम समझ गए कि बेवजह की बहस से साहब का दिमाग गर्म हो रहा है। अतः हम उनसे बहस करने के बजाय स्वयं ‘शीत प्रकोप’ के प्रभाव में आकर शांत हो गए।
मैंने अपने जीवन में कई तरह के संवाददाता देखे हैं। एक तो वे, जो खुद तो लिख नहीं सकते मगर खबर लिखते हैं और खूब छपते हैं। उनका नाम होता है। ऐसे लोगों के पास बजबजाती नाली के पलते कीड़ों से लेकर पेड़ों से झरते पत्तों तक की खबर होती है। अखबार वाले भी इन्हें बड़े चाव से छापते हैं क्योंकि उनके पास कोई और धांसू खबर नहीं होती।
एक वे होते हैं, जो दूसरे अखबार की खबर अपने अखबार में छापने हेतु जेबकतरे की तरह खबरों का पोस्टमार्टम कर शान से छपवा देते हैं। बस, उन्हें उन खबरों को थोड़ा तोड़ने-मरोड़ने की जरूरत होती है। सो, इतना कर लेने में तो वे सिद्धहस्त होते हैं।
मेरे एक मित्र हैं, जो क्षेत्र के एक साप्ताहिक अखबार के संवाददाता हैं। वे खबरें ढूंढ़ने के लिए गली-गली में साइकिल या मोटरसाइकिल लेकर नहीं घूमते बल्कि शान से शरीर लहराते हुए दिन में चार बार पान की दुकान व चाय की दुकान में चाय-पान ग्रहण करने जाते हैं। वहां मौजूद लोगों के मुख से तरह-तरह की बातें सुनते हैं और फिर वहां से खबरें ‘कलेक्ट’ करके ले आते हैं। सप्ताह भर बाद वे ही खबरें उस साप्ताहिक में दिखाई दे जाती हैं।
कस्बे के संवाददाता बनवारीलाल जी, जो संवाददाता कम, अखबार विक्रेता ज्यादा हैं, उनसे हमने एक दिन कहा, ‘‘भाई जी, हमारे दफ्तर में आयोजित एक कार्यक्रम की खबर छपवा दो।’’
वे बोले, ‘‘काहे को छपवाने-खपवाने की बला हमारे सिर पर थोप रहे हो। जब अपनी धौंस से ही अखबार बिक रहा है तो बिना मतलब के कागज-कलम घिसकर हम अपना समय बर्बाद नहीं करना चाहते। अगर आप कह रहे हैं तो किसी और संवाददाता से आपको मिलवा देता हूं, वह छाप देगा।’’
कुछ संवाददाताओं को पत्रकारिता से ज्यादा अपनी गाड़ी पर ‘प्रैस’ लिखवाकर घूमने में ही रूचि होती है। उनके बोलने का, मिलने का अंदाज भी किसी राष्ट्रीय अखबार के संवाददाता की तरह ही होता है। इनकी संवादगिरी में पत्रकारिता से ज्यादा नेतागिरी की रूचि ज्यादा दिखाई देती है। कारण कि ये किसी न किसी पार्टी से जुड़े होते हैं। चंदा वसूली इनका मुख्य कर्त्तव्य होता है। अखबारनवीसी तो बचाव का मुखौटा होता है ताकि लोग कह सकें कि जनाब ये तो जनसेवक हैं।
पड़ोसी शहर में मेरे एक प्रतिष्ठित व्यापारी मित्र हैं। मैंने देखा कि कुछ महीनों से उन्हें भी संवाददाता बनने का चस्का लग गया है। वे भी आजकल खबरें लिखते हैं, खूब छपते हैं। एक दिन मैंने उनसे कहा, ‘‘अरे रघुवीर, तू सामान तोलते-तोलते संवाददाता कब से बन गया?’’
वह हंसते-हंसते बोला, ‘‘अबे, हमारी बुद्धि व्यापारी बुद्धि है। सारे नंबर दो के काम हम लोगों को करने पड़ते हैं। बच्चू, जब ऐसा काम कर रहे हैं तो एक ‘सुरक्षा कवच’ भी तो चाहिए न और वो कवच है किसी प्रतिष्ठित अखबार का संवाददाता बन जाना। वही हम कर रहे हैं।’’
उनकी बातें सुनकर हमें बोलना ही पड़ा, ‘‘वाकई गुरू तू तो बड़ा घण्टाल है।’’
एक शाम मेरे दसवीं फेल बेटे ने कहा, ‘‘पापा, मैं ऑटोमोबाइल रिपेयरिंग का काम सीखने शहर जा रहा हूं।’’
मैंने उसे समझाया, ‘‘बेवकूफ, ऑटोमोबाइल का काम सीखेगा! हाथ काले करेगा! कपड़े गंदे करेगा! अरे नालायक, तू किसी अखबार की एजेंसी लेकर उसका संवाददाता बन जा। दादागिरी करना तो तू जानता ही है। नेतागिरी के लिए किसी नेता के चरण पकड़ ले। रिपेयरिंग से कहीं ज्यादा तू रिपोर्टिंग में कमाएगा।’’
वह मेरा मुंह ऐसे ताक रहा था, जैसे मैं उसे बिना ‘मलेरिया प्रकोप’ के जबरदस्ती कुनैन की गोली निगलने के लिए मजबूर कर रहा हूं। शायद मेरी समझाइश या तो उसके भेजे में नहीं घुसी या उसे नागवार गुजरी। वह एक पल की देरी किए बिना मेरे सामने से ऐसे गायब हो गया, जैसे मौका पाकर बिल्ली के पंजे से चूहा। (एम सी एन)
(श्री सुनील कुमार ‘सजल’ प्रतिष्ठित व्यंग्यकार हैं तथा ‘मीडिया केयर नेटवर्क’ से जुड़े हैं)

Comments

girish pankaj said…
ajal mey badee sambhavanaa hai. vah bhavishyaaka shreshth vyagyakaar hai. usaki rachanaa dekh kar achchha lagaa. rachanaa bhi achchhi hai.

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