हास-परिहास : मियां खटकरर्म का ‘पीस महल’!

- कपूत प्रतापगढ़ी (मीडिया केयर नेटवर्क)

सवेरे-सवेरे मियां खटकरर्म ने मेरे घर की कुंडी खड़कायी और बोले, ‘‘कपूत भाई, मैंने अपने इमामबाड़े का नाम बदलकर ‘पीस महल’ रख लिया है। आप तो जानते ही हैं कि मैं इन दिनों काफी तंगहाल हूं। इसलिए मैं इस पीस महल को किराये पर देना चाहता हूं। सुना है कि आपको भी मकान बदलना है, इसीलिए मैंने सोचा कि क्यों न आप से ही शुरूआत करूं।’’

मैंने पूछा, ‘‘लेकिन मियां, भला आपको कैसे पता चला कि हमें मकान बदलना है?’’

‘‘अरे मियां, हम सब कुछ जानकर भी चुप रहें, ये और बात है। ऐसा क्या है कि हमको तुम्हारी खबर न हो! आपके पड़ोसी झुट्ठन मिसिर जी बता रहे थे। मेरी मानिये तो आज ही चलकर कमरा देख लीजिए।’’ मियां खटकरर्म इतना कहकर एक लंबी सांस भरकर फिर बोले, ‘‘अजी वाह! क्या कमरे हैं हमारे इमामबाड़े के ... माफ कीजिएगा ‘पीस महल’ के, जहां हवा-पानी की मुफ्त व्यवस्था है।’’

मैंने कहा, ‘‘मियां, तशरीफ भी रखिएगा या बस यूं ही बड़बड़ाते रहिएगा?’’

‘‘क्यों नहीं, क्यों नहीं’’ कहते हुए मियां सोफे में धंस गए। मैंने पत्नी को चाय लाने को कहा और खुद कपड़े बदलने चला गया।

थोड़ी देर बाद हम उनके उस तथाकथित ‘पीसमहल’ के सामने थे। शायद यह इस शहर की सबसे पुरानी कोठी थी, जिसकी दीवारों पर चढ़ी काई ने इसे हरे रंग का बना दिया है। सामने बॉक्स पर कानफोडू आवाज में बज रही कव्वाली और बगल के पान की गुमटी से आ रही भोजपुरी गीत की आवाज और उस पर भी मुख्य द्वार पर ही खेल रहे लगभग 50 बच्चे, जैसे किसी स्कूल की छुट्टी हो गई हो।

उन सब को पार करते हुए मैं अभी अंदर दाखिल ही हुआ था कि एकाएक ‘धम्म’ की आवाज के साथ एक ईंट हमसे लगभग डेढ़ फुट की दूरी पर आ गिरी। वो तो भगवान का शुक्र था कि मैं पीछे खड़ा था वरना मेरी गंजी चांद में गड्ढ़ा हो गया होता।

मेरी घबराहट देख मियां खटकरर्म दांत निपोरते हुए बोले, ‘‘अमां, थोड़ा संभलकर चलना।’’

मेरा तो कलेजा ही उछल गया। खैर, मैं अपनी धड़कनों पर काबू पाने की कोशिश करता आगे बढ़ने लगा।

‘‘आइए आपको ऊपर का कमरा दिखा दूं, जहां आप सुकून से अपनी पढ़ाई-लिखाई कर सकें। आइए ... आइए ...।’’ कहकर वह खुद तो पीछे खड़े हो गए और मैंने जैसे ही सीढ़ी पर पैर रखा, वह उत्तर प्रदेश की सरकार की तरह बैठ गई। अब तो मेरा डर के मारे बुरा हाल हो गया। खैर, उनके बहुत कहने पर मैं डरता-डरता ऊपर पहुंचा।

उन्होंने अभी कमरे का दरवाजा खोला ही था कि लगभग चार दर्जन चूहे व तिलचट्टे पलक-पांवड़े बिछाए मिले। संयोग से उसी समय बारिश भी आ गई और हमें वहीं रूक जाना पड़ा।

अब आपसे क्या कहें, छत तो बस नाम की थी। एक बूंद पानी भी बाहर नहीं जा रहा था। उस पर उसमें जमी कालिख ने मेरे साथ-साथ मेरे कुर्ते का रंग भी ऐसा बिगाड़ा कि सूरत ही पहचान में नहीं आ रही थी। इतनी बेरहमी से तो कोई हमें होली पर भी नहीं रंगता है। हम वहीं रूके हुए बारिश के थमने का इंतजार कर रहे थे और हमारे घुटने के छह इंच नीचे तक पानी आ गया। इधर काले बादलों की वजह से थोड़ा और अंधेरा बढ़ा कि तब तक अचानक मेरा पूरा शरीर झनझना उठा। मैं कुछ समझ पाता, इससे पहले ही एक जोरदार झटका लगा। मैंने चीखते हुए कहा, ये क्या हो रहा है मियां?’’

‘‘वो मैं बत्ती जलाने की कोशिश कर रहा था। लगता है स्विच में करंट आ गया है।’’ दांत निापोरते हुए मियां खटकरर्म बोले।

इससे पहले कि वो कुछ और बोलते, मैं सीधा नीचे की तरफ चल पड़ा। अभी जीने पर ही था कि देखा लगभग चार सीढ़ियां पानी में पूरी डूब चुकी हैं और आंगन में लगभग कमर तक पानी जमा है तथा लगातार भरता ही जा रहा है।

मैं किसी तरह वहां से निकला। पीछे से मियां चिल्लाते रहे, ‘‘अरे कपूत भाई, क्या हुआ? अरे ये पसंद नहीं है तो दूसरा दिखाऊं?’’

लेकिन मेरी हिम्मत ही नहीं हुई कि पलटकर देख लूं। (एम सी एन)

(यह व्यंग्य ‘मीडिया केयर नेटवर्क’ के डिस्पैच से लिया गया है)

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