अपना घर

. उषा जैन ‘शीरी’ (मीडिया केयर नेटवर्क)

सुशीला रोते-रोते सोचने लगी कि बचपन में एक बार गैस पर दूध रखकर मां उसे दूध देखते रहने के लिए कहकर मंदिर चली गई थी और वो एक पत्रिका पढ़ने में ऐसी मशगूल हुई थी कि दूध का उसे ध्यान ही न रहा था। दूध उबल-उबलकर गिरता रहा। जब दूध जलने की महक आई तो दौड़कर गई थी। तब तक दादी भी पूजा खत्म करके आ गई थी। उन्होंने उसकी पढ़ाई को कोसते हुए कहा था, ‘‘बहू को कितना कहती हूं कि इसकी पढ़ाई-लिखाई छुड़वाकर कुछ घर का काम धंधा भी सिखा दे। पढ़-लिखकर लड़की हाथ के बाहर हुई जा रही है।’’

मां ने भी मंदिर से आते ही उसे दो थप्पड़ जड़ दिए थे। उस दिन चाय भी नहीं मिली थी जबकि भैया उसे चिढ़ा-चिढ़ाकर मिल्क शेक पीता रहा था।

वह उस घर में बोझ थी। उसे पराए घर जो चले जाना था। पति के घर आई तो बात-बात पर सास कहती, ‘‘हमारे घर में ये सब नहीं चलेगा।’’

पति से जरा कहासुनी होने पर वे कहते, ‘‘निकल जाओ मेरे घर से।’’

समय के साथ बेटा जवान हो गया। पति गुजर गए। बहू उससे घर की नौकरानी जैसा बर्ताव करती। उस दिन भी अवसाद में डूबी वो दूध उबल जाना नहीं देख पाई। बहू का पारा अब सातवें आसमान पर था, ‘‘अपने घर में भी क्या ऐसे ही नुकसान किया करती थी?’’ क्रोध में फुफकारते आंखें तरेरते हुए बहू ने कहा।

‘‘अपना घर ...? कब था उसके पास कोई अपना घर? बहू भी कितनी नादान है ना।’’ मन ही मन सुशीला ने कहा पर ऊपर से कसूरवार बनी खामोश रही। (एम सी एन)

(यह रचना ‘मीडिया केयर नेटवर्क’ के डिस्पैच से लेकर यहां प्रकाशित की गई है)

Comments

sonal said…
मन छूने वाली कहानी
सोनल जी,
टिप्पणी दर्ज कराने के लिए धन्यवाद। आपके विचार हमारे लिए बहुमूल्य हैं। कृपया भविष्य में इसी प्रकार अपनी निष्पक्ष एवं सटीक प्रतिक्रिया व्यक्त करती रहें।

Popular posts from this blog

तपती धरती और प्रकृति का बढ़ता प्रकोप