पुलिस की वर्दी

- मुकेश कुमार सिन्हा (मीडिया केयर नेटवर्क)

‘‘अरे! मां जी! ऑटो का किराया तो देते जाइए। कुल 90 रुपये हुए हैं।’’

‘‘ऐ! तू जानता नहीं, कौन हूं मैं! मेरा बेटा इस शहर का कोतवाल है। अरे, तेरी हिम्मत कैसे हुई मुझसे किराया मांगने की?’’

किराया न मिलने से क्षुब्ध ऑटो चालक बड़बड़ाता हुआ ऑटो स्टार्ट कर ही रहा था कि वहीं से गुजर रहे उन्हीं कोतवाल साहब ने पता चलने पर अपनी मां के बदले उस ऑटो वाले का किराया चुकता कर दिया और अपने घर का रूख किया।

घर में घुसते ही मां ने कहा, ‘‘जानता है बेटा, आज ...!’’

‘‘बस कर मां। मैं जानता हूं पूरी बात लेकिन बेटे की पुलिस की वर्दी की धौंस दिखाकर इस तरह किसी गरीब का निवाला छीनना सही बात नहीं है। बेचारा सुबह से लेकर शाम तक मेहनत करता है, तब जाकर रात के वक्त उस गरीब के घर का चूल्हा जलता है। मां, यह वर्दी दूसरों की हिफाजत के लिए है, इस तरह से गरीबों पर धौंस दिखाने के लिए नहीं।’’ (एम सी एन)

(यह रचना ‘मीडिया केयर नेटवर्क’ के डिस्पैच से लेकर यहां प्रकाशित की गई है)

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